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काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ती [सूत्र ४३ क्वचिद्विवक्षा, क्वचिदविवक्षा, क्वचिदुभयमिति। विवक्षा यथा 'ईहा', 'लज्जा' इति । अविवक्षा यथा 'आतंक' इति । विवक्षाविवक्षे यथा 'बाधा', 'वाधा', 'उहा', 'अहः'; 'ब्रीडा', 'ब्रीड' इति ॥ ४२ ॥
व्यवसितादिषु क्तः कर्तरि चकारात् । ५, २, ४३ ।
'व्यवसितः' 'प्रतिपन्न' इत्यादिपु भावकर्मविहितोऽपि क्तः कर्तरि । गत्यादिसूत्रे चकारस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वात् । भावकर्मानुकर्षणार्थत्वचकारस्येति चेत्, आवृत्तिः कर्तव्या ।। ४३॥
'अ' प्रत्यय ] की स्त्रीलिङ्ग में बहुल करके विवक्षा होती है । १. कहीं विवक्षा हो २. कहीं विवक्षा न हो, ३. कही दोनो हो [ यह 'बहुल' पद का अभिप्राय है ] । विवक्षा [का उदाहरण] जैसे 'ईहा', 'लज्जा' [यहां '' प्रत्यय हुमा है । अविवक्षा [का उदाहरण ] जैसे 'आतङ्क' [यहा 'अ' प्रत्यय नही हुआ है। विवक्षाविवक्षा उभय [ का उदाहरण ] जैसे 'बाधा' 'बाध'; 'ऊहा' 'ऊह'; 'व्रीडा, 'बीड' [ इनमे 'अ' प्रत्यय हुआ भी है और नही भी हुआ है । इसलिए विकल्प से दो प्रकार के रूप बने है ।
वाहुलक का इसी आशय का लक्षण व्याकरण ग्रन्थो मे इस प्रकार किया गया है
क्वचित् प्रवृत्ति क्वचिदप्रवृत्ति क्वचिद्विभापा क्वचिदन्यदेव । विधैर्विघान वहुधा समीक्ष्य चतुर्विध बाहुलक वदन्ति ।। ४२ ॥
'व्यवसितः' इत्यादि में 'क्त' प्रत्यय कर्ता में होता है [गत्यादि सूत्र में ] चकार से [अनुक्त का समुच्चय होने से ] ।
[साधारणतः] भाव कर्म मे विहित [ होने पर ] भी 'क्त' [प्रत्यय ] 'व्यवसितः' [ किमसि कतुं व्यवसितः] 'प्रतिपन्नः' इत्यादि [प्रयोगो ] में [भाव या कर्म में न होकर ] कर्ता में हुआ है । गत्यादि [ गत्यर्थाकर्मकश्लिषशीस्थासवसजनाहजीर्यतिभ्यश्च ] सूत्र में [गत्यर्थक, अकर्मक, श्लिष, शोड्, स्था, अस, वस, जन, रह, जृ धातुओ से क्त प्रत्यय का कर्ता में विशेष रूप से विधान किया गया है। सूत्र के अन्त में जोड़े हुए] 'चकार' के अनुक्त समुच्चयार्थक होने से। [उस अनुक्त समुच्चय वश से हो 'व्यवसितः' 'प्रतिपन्न इत्यादि में भी दर्ता में 'क्त' प्रत्यय हो जाता है। यदि यह कहो कि उक्त गत्यादि सूत्र में अनुक्त समुच्चय के लिए चकार का ग्रहण नहीं किया गया अपितु] भाव कर्म के अनुकर्षण [अनुवृत्ति लाने ] के लिए चकार [ का ग्रहण ] है तो