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सूत्र ९]
पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्यायः
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अस्त्ययं लभिर्य: प्राप्त्युपसर्जनां गतिमाह । अस्ति च गत्युपसर्जन प्राप्तिमाहेति । अत्र पूर्वस्मिन् पक्षे गत्यर्थत्वाभावाल्लभेर्णिच्यणौ कर्ता तस्य 'गत्यादिसूत्रेण कर्मसंज्ञा । यथा
दीर्घिका कुमुदानि विकास लम्भयन्ति शिशिराः शशिभासः । द्वितीयपक्षे गत्यर्थन्वाभावाल्लभेणिच्यौ कतुर्न कर्मसंज्ञा ।
यथा
सितं सितिम्ना सुतरां मुनेर्वपु
विसारिभिः सौधमिवाथ लम्भयन् ।
द्विजावलिव्याज निशाकरांशुभिः शुचिस्मितां
[ मे प्रयोजक कर्ता की अवस्था ] में श्रण्यन्त श्रवस्या के कर्ता का कर्मत्व और अकर्मत्व [ कहीं कर्मसंज्ञा और कहीं उसका प्रभाव ] होता है ।
वाचमवोचदच्युतः ॥ ६ ॥
एक इस प्रकार का लभ धातु [ का प्रयोग ] है जो, प्राप्ति जिसमें उपसर्जन [ गुणीभूत ] है ऐसी गति को कहता है । और [ दूसरा इस प्रकार का लभ धातु का प्रयोग है ] जो, गति जिसमें उपसंर्जनीभूत है इस प्रकार की प्राप्ति को कहता है । उन [ दोनो में से प्राप्ति जिसमें गुणीभूत है ऐसे गतिप्रधान ] प्रथम पक्ष में लभ धातु के गत्यर्थक [ गतिप्रधानार्थक ] होने से श्रण्यन्तावस्था में जो कर्ता उसकी [ 'गतिबुद्धिप्रत्यवसानार्थ शब्दकर्माकर्मकाणामणि कर्ता स 'ण' इत्यादि ] गत्यादि सूत्र से कर्मसज्ञा हो जाती है । जैसे-
चन्द्रमा की शीतल किरणें बावडियो में कुमुदो को खिलाती [ विकास को प्राप्त कराती ] है ।
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यहा कुमुद विकास को प्राप्त करते है इस बण्यन्तावस्था के वाक्य मे कुमुद कर्ता है । गीतल शशिकिरणे कुमुदो को विकास प्राप्त करवाती है । इस णिजन्तावस्था मे प्रयोजक कर्ता गशिकिरणे है । और अण्यन्तावस्था का कर्ता कुमुद यहा कर्म हो गया है ।
[ प्राप्ति प्रधान ] दूसरे पक्ष में [ लभ धातु के ] गत्यर्थक न होने से णिजन्त में ण्यन्तावस्था के कर्ता को कर्म संज्ञा नहीं होती है । जैसे
स्वभावत: गौर वर्ण [ नारद ] मुनि के शरीर को [ चारो श्रोर ] फैलने
अष्टाध्यायी १, ४, ५२ । अष्टाध्यायी १, ४, ५२ ।