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________________ सूत्र ८] पञ्चमाधिकरणे द्वितीयोऽध्याय. [३०३ देने वाले प्रयोग आत्मनेपदी धातु से शानच् प्रत्यय में मुक् का आगम होकर नहीं अपितु परस्मैपदी धातु से ही ] चानश [प्रत्यय] में [ मुगागम करके बनाए हुए ] समझने चाहिए। [उन] धातुओ के परस्मैपदी होने से।[उन धातुओ से परे] शानच [ प्रत्यय ] का अभाव है। [परस्मैपदी धातु से शानच् प्रत्यय नही हो सकता है अतएव 'ताच्छील्यवयोवचनशक्तिषु चान' सूत्र से 'चान' प्रत्यय करके उनकी सिद्धि होती है यह समझना चाहिए । ___लोलमान, वेल्लमान शब्दो का प्रयोग निम्न श्लोक मे इकट्ठा ही किया गया है लोलमाननवमौक्तिकहार वेल्लमानचिकुररुलथमाल्यम् । स्विन्नवत्रिमविकस्वरनेत्र कौशल विजयते कलकण्ठया ॥८॥ लभ धातु 'डुलभप् प्राप्तौ' इस रूप मे प्राप्ति अर्थ मे भ्वादिगण में पढा गया है। इस के 'भयन्तावस्था' मे दो प्रकार के प्रयोग काव्यो मे-पाए जाते है । कही तो 'अण्यन्तावस्था' का लभ धातु का कर्ता ण्यन्तावस्था में कर्म हो गया है और उसमे द्वितीया विभक्ति का प्रयोग हो रहा है। और कही अण्यन्तावस्या का लभ धातु का कर्ता ण्यन्तावस्था में कर्म नही हुआ है और उसमे ण्यन्तावस्था मे द्वितीया के बजाय तृतीया विभक्ति का प्रयोग हो रहा है। पहिले प्रकार का उदाहरण दीधिकासु कुमुदानि विकास लम्भयन्ति गिगिरा शशिभास । है । इसमे 'लम्भयन्ति' यह णिजन्त का प्रयोग है । इसका अण्यन्तावस्था में 'कुमुदानि विकास लभन्ते' इस प्रकार का प्रयोग होता है । इसमे 'कुमुदानि' कर्ता है, 'विकास' कर्म है, लभन्ते' अण्यन्तावस्या की क्रिया है । 'कुमुदानि विकास लभन्ते, तानि शगिभास प्रेरयन्ति' इस प्रकार प्रयोजक कर्ता मे णिच् प्रत्यय करने पर 'शशिभास कुमुदानि विकाम लम्भयन्ति' यह प्रयोग बनता है । इसमें कुमुदानि यह कर्म विभक्ति है और द्वितीया का रूप है। पाणिनि के 'गतिवृद्धिप्रत्यवसानार्थगन्दकर्माकर्मकाणामणि कर्तास णौ' इस मूत्र से गत्यर्थक आदि धातुओ का अण्यन्तावस्था का कर्ता ण्यन्तावस्था मे कर्म सजक हो जाता है । और उसमे द्वितीया विभक्ति होती है । जैसे 'अप्टाध्यायी ३, २, १२९ अष्टाध्यायी १,४,५२
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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