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तत्व मानते थे । उत्तर-ध्वनि श्राचार्यों ने अलङ्कार और अलङ्कार्य —-वस्तु और शैली अथवा प्राण और देह का अन्तर स्पष्ट किया और रस ध्वनि को काव्य का प्राणतत्व तथा रीति को बाह्यांग माना - जिस प्रकार श्रंग संस्थान श्रात्मा का उपकार करता है, इसी प्रकार रीति रस की उपकनीं है। उन्होंने रीति को काव्य का माध्यम मानते हुए वर्ण-संयोजन, तथा पद-रचना अर्थात् शब्दगुम्फ तथा समास को उसके बहिरंग तत्व और गुण को अन्तरग तत्व स्वीकार किया जिसके श्राश्रय से वह रस की अभिव्यक्ति करती है ।
रीति के नियामक हेतु
वामन ने तो रीति को स्वतन्त्र तथा सर्वतन्त्र सत्ता मानी थी— अतएव उनके लिए तो रीति के नियमन तथा नियामक हेतुश्नों का प्रश्न ही नहीं उठता -- परन्तु श्रागे चलकर स्थिति बदल गई । रीति को परतन्त्र होना पडा । अनन्दवर्धन ने रस को रोति का प्रमुख नियामक हेतु माना है । रोति पूर्णतया रस के नियन्त्रण में रहती है-उसी के अधीन कुछ और भी हेतु हैं जो उपचार से रीति का नियमन करते हैं। रस के अतिरिक्त ये हेतु तीन हैं वक्तुऔचित्य, वाच्य औचित्य और विषय चचित्य 1
तन्नियमे हेतुरौचित्यं वक्तृवाच्ययोः ॥ ३६ ॥
उस ( संघटना) के नियमन का हेतु वक्ता तथा वाच्य का श्रौचित्य
है ।
इसके अतिरिक्त
विषयाश्रयमप्यन्यदौचित्यं तां नियच्छति ।
काव्यप्रभेदाश्रयतः स्थिता भेदवती हि सा ॥ ३७ ॥
अर्थात् विषयाश्रित औचित्य भी उसका ( संघटना का ) नियन्त्रण करता I काव्य के भेदों के आश्रय से भी उसका भेद हो जाता है ।
उपर्युक्त तोन नियामक हेतुओं की थोडी व्याख्या अपेक्षित है। इनकी परिभाषा स्वयं श्रानन्दवर्धन ने की है ।
"वक्ता कवि या कवि- निबद्ध ( दो प्रकार का ) हो सकता है। और कवि-निबद्ध (वक्ता) भी रसभाव (आदि) से रहित अथवा रसभावयुक्त (दो
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