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सूत्र ३३]
चतुर्थाषिकरणे तृतीयोऽध्यायः
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नवीन आचार्यों ने अनेक अलङ्कारो के मिश्रण की स्थिति मे सङ्कर और ससृष्टि दो प्रकार के अलङ्कार माने है । जव कि वामन और भामह दोनो मिश्रण की स्थिति में केवल एक ससृष्टि अलङ्कार ही मानते है । मम्मट, विश्वनाथ आदि नवीन आचार्यों के मत मे यदि दो या अधिक अलङ्कारो की परस्पर निरपेक्ष स्थिति होती है तभी ससृष्टि अलङ्कार माना गया है। कार्यकारणभावादि होने पर ससृष्टि नही अपितु सकर अलङ्कार होता है । उन्होने सङ्कर के अगागिभाव सकर, २ सन्देह सकर, तथा एकाश्रयानुप्रवेश सकर इस प्रकार तीन भेद माने है । और परस्पर निरपेक्ष अलङ्कारो की स्थिति मे ससृष्टि अलङ्कार माना है । साहित्यदर्पण मे इनका निरूपण इस प्रकार किया है
यदैत एवालद्वारा परस्परविमिश्रिता ।
तदा पृथगलड्कारो ससृष्टि सकरस्तथा। मिथोऽनपेक्षतयपां स्थिति ससृष्टिरुच्यते ।
अगागित्वेऽप्यलकृतीना तद्वदेकाश्रयस्थितौ ।
सन्दिग्धत्वे च भवति सकरस्त्रिविध पुन ॥ ससृष्टि के भी फिर अनेक भेद हो सकते है । जैसे शब्दालड्वारो की ससृष्टि, अथवा अर्थालङ्कारो की ससृष्टि अथवा शब्दार्थालङ्कारो की ससृष्टि । इन तीनो प्रकार की ससृष्टि एक ही उदाहरण में इस प्रकार दिखलाई गई है।
देव पायादपायान्न स्मरेन्दीवरलोचन । - ससारध्वान्तविध्वसहस कसनिपूदन ।
इसके पहिले चरण 'पायादपायाद्' मे यमक है । तीसरे चरण 'ससार-ध्वान्त विध्वसहस' मे अनुप्रास अलङ्कार है । यह दोनो परस्पर निरपेक्ष रूप से स्थित है। इसलिए यह शब्दालड्कारो की ससृष्टि हुई । द्वितीय पाद मे 'स्मेरेन्दीवरलोचन' में उपमा अलङ्कार और श्लोक के उत्तरार्द्ध मे सूर्य के आरोप मूलक रूपक अलङ्कार होने मे यहा अर्थालङ्कारो की ससृष्टि हुई । और ग्लोक में शब्दालङ्कार अर्थालङ्कार दोनो के होने से उभयालङ्कार की ममृष्टि हुई।
इस ससृष्टि के विषय में प्राचीन तथा नवीन आचार्यों के मत में बहुत भेद है । वामन आदि तो कार्य-कारण भाव आदि होने पर समृष्टि मानते है परन्तु नवीन आचार्य उसको ससृष्टि न कह कर सङ्कर कहते है । और अनेक अलङ्कारो की निरपेक्ष स्थिति को संसृष्टि कहते है । सङ्करालङ्कार के सन्देह