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________________ १४८] काव्यालङ्कारसूत्रवृत्तो [सूत्र ५ अवैपम्य समता । ३, २, ५ । अवैपभ्यं प्रक्रमाभेदः समता । कचित् क्रमोऽपि भिद्यते । यथा च्युतसुमनसः कुन्दाः पुष्पोद्गमेष्वलसा द्रुमाः मलयमरुतः सर्पन्तीमे वियुक्तधृतिच्छिदः। अथ च सवितुः शीतोल्लासं लुनन्ति मरीचयो न च जरठतामालम्वन्ते क्लमोदयदायिनीम् ।। ऋतुसन्धिप्रतिपादनपरे द्वितीये पादे क्रमभेदो, मलयमरतामसाधारणत्वात् । एवं-द्वितीयः पादः पठितव्यः शूद्रक आदि रचित [ मृच्छकटिक आदि ] प्रबन्धों [ नाटकों अथवा काव्यो ] में इस [प्रकार के श्लेष ] का बहुत विस्तार पाया जाता है ॥४॥ चतुर्थ अर्थगुण 'समता' का अगले सूत्र में निरूपण करते है प्रवैषम्य [अर्थात् १. प्रक्रम के प्रभेद और २. सुगमत्व का नाम ] 'समता' है। अवैषम्य अर्थात् प्रक्रम का अभेद 'समता' [नामक अर्थगुण ] है। इस 'प्रक्रमाभेद' रूप 'समता' को समझने के पहिले उसके विरोधी 'प्रक्रम-भेद' को समझना आवश्यक है । इसलिए पहिले 'प्रक्रमाभेद' रूप 'समता' का उदाहरण देने के बजाय उसके विरोधी 'प्रक्रम-भेद' का उदाहरण अथवा 'समता' के प्रत्युदाहरण की अवतारणा करते हुए वृत्तिकार लिखते है । कहीं क्रम का भेद भी होता है । जैसे [ निम्न श्लोक में 'प्रक्रम-भेद' पाया जाता है। [इस श्लोक में कवि शिशिर और वसन्त को 'ऋतुसन्धि' का वर्णन कर रहा है । शिशिर ऋतु में खिलने वाले ] कुन्द [शिशिर के समाप्तप्राय होने से ] फूलो मे रहित हो गए है, और [ वसन्त में खिलने वाले ] वृक्षो में [ऋतुसम्धि के कारण अभी फल निकल नहीं रहे हैं। अभी उनका खिलना प्रारम्भ नहीं हुया है ] वियोगियों के घेर्य को नाश करने वाला मलय पवन चल रहा है। और सूर्य की किरणें सर्दी के वेग को नष्ट करने लगी है । परन्तु पसीना लाने वाली तीव्रता को [अभी ] प्राप्त नहीं हुई है। ऋतु सन्धि [ शिशिर और वसन्त की सन्धि ] का प्रतिपादन करने वाले इस [ श्लोक ] में द्वितीय पाद में [णित ] मलय पवन के [ वसन्त ऋतु का ] विशेष [धर्म ] होने से [ उसका स्पष्ट वर्णन ऋतु सन्धि के विपरीत होने से ]
SR No.010067
Book TitleKavyalankar Sutra Vrutti
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorVishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1954
Total Pages220
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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