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काव्यालङ्कारसूत्रवत्ती
[ सूत्र ३
रतिविगलितबन्धे केशपाशे सुकेश्याः । इत्यत्र सुकेश्या इत्यस्य च साभिप्रायत्वं व्याख्यातम् ॥ २ ॥ अर्थवैमल्य प्रसाद । ३,२,३ ।
अर्थस्य वैमल्यं प्रयोजकमात्रपरिग्रहः प्रसादः । यथासवर्णा कन्यका रूपयौवनारम्भशालिनी । विपर्ययस्तु —
उपास्तां हस्तो मे विमलमणिकाची पदमिदम् ।
कालीपदमित्यनेनैव नितम्बस्य लक्षितत्वात् विशेषणस्याप्रयोजक
त्वमिति ॥ ३ ॥
इस [ पूर्वोक्त उदाहरण ] से
'सुकेशी के रतिकाल में खुले हुए केशपाश में '
इत्यादि [ उदाहरण ] में 'सुकेश्या' इस [ पद ] के 'साभिप्रायत्व' की व्याख्या समझ लेनी चाहिए ॥ २ ॥
दूसरे श्रर्थगुरण 'प्रसाद' का लक्षण अगले सूत्र में करते है
श्रर्थं का नैर्मल्य [ श्रर्थात् स्पष्टता ] 'प्रसाद' [ गुण कहलाता ] है । अर्थ का नैर्मल्य विवक्षित अर्थ के समर्पक - [- प्रयोजक ] पद का प्रयोग 'प्रसाद' [ नामक श्रर्थगुण ] है । जैसे
रूप और नवयौवन के प्रारम्भ से युक्त यह सवर्णा कन्या है । [ यह अपने ही क्षत्रिय प्रादि व की होने से समान वर्ण वाली प्रथवा सुन्दर इस का बोधक 'सवर्णा' पद कन्या की उपादेयता अर्थात् विवाहयोग्यता का सूचक है ]।
इसका विपर्यय [ प्रभाव होने पर 'प्रपुष्टार्थत्व' और 'अनर्थकत्व' दोष हो जाते है । उनमें से 'पुष्टार्थत्व' का उदाहरण देते है ] जैसे
मेरा हाथ विमल मणियो को तगड़ी के इस स्थान को स्पर्श करे । इसमें ‘काञ्ची पदं' इस [ कथन ] से ही नितम्ब का लक्षणा से बोध हो जाने से [ काञ्ची के साथ दिए हुए विमलमणि ] विशेषण प्रप्रयोजक [ अविaft a पुष्टार्थं ] है । [ अतः इस प्रत्युदाहरण में 'प्रसाद' गुण' नहीं है ] ॥ ३ ॥
तृतीय प्रगुरण श्लेष का निरूपण प्रगले सूत्र में करते है