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की सफलता है । परन्तु क्या केवल सफल उक्ति अथवा सफल अभिव्यंजना ही काव्य है ? हमारे श्राचर्यों ने भरत से लेकर रामचन्द्र शुक्ल तक ने इम्पका निषेध किया है। उधर विदेश में भी अरस्तु से लेकर रिचर्डस तक सभी ने इसका प्रतिवाद किया है । भारतीय काव्य शास्त्र में इसीलिए विश्व - नाथ को 'रसात्मक' शब्द का प्रयोग करना पडा और पडितराज जगन्नाथ को 'रमणीयार्थ प्रतिपादक' विशेषण लगाना पडा - शुक्ल जी ने भी इसीलिए रमणीय और रागात्मक शब्दों का प्रयोग किया है। इन श्राचार्यों के अनुसार प्रत्येक अर्थ और शब्द का सामंजस्य काव्य नहीं है - रमणीय अर्थ और शब्द का सामंजस्य ही काव्य है । दूसरे शब्दों में प्रत्येक (सफल) उक्ति काव्य नहीं
सरस या रमणीय ( रमणीय अर्थ को व्यक्त करने वाली) उक्ति ही काव्य है । ग्ररस्तू ने भी भाव-वैभव पर इसी दृष्टि से अधिक बल दिया है—और याधुनिक मनोवैज्ञानिक आलोचक रिचर्डस भी, जो कि काव्य को मूलतः एक अनुभव मानते हैं, इस अनुभव के लिए - प्रकार की दृष्टि से नहीं - प्रभाव आदि की दृष्टि से कतिपय गुणों की स्थिति अनिवार्य मानते हैं । स्थूल शब्दों में प्रत्येक अनुभव काव्य नहीं है- समृद्ध अनुभव' ही काव्य है ।
परन्तु इस तर्क के विरुद्ध भामह के लक्षण के समर्थन में भी युक्ति दी जा सकती है - और वह यह कि शब्द और अर्थ का सामंजस्य अपने आप में ही रमणीय होता है उसके लिए रमणीय विशेषण की श्रावश्यकता नहीं । क्रोचे का यही मत है कि सफत उक्ति स्वयं सौंदर्य है—उसके अतिरिक्त सौन्दर्य कोई बाह्य तत्व नहीं है । "सफल अभिव्यंजना ही सौन्दर्य है क्यों कि
सफल अभिव्यंजना तो अभिव्यंजना ही नहीं होती ।" (क्रोचे ) । भारतीय काव्य-शास्त्र में कुन्तक को सूक्ष्म दृष्टि इस तथ्य तक पहुची है और उन्होंने इस विरोधाभास को दूर करने का प्रयत्न किया है । एक स्थान पर साहित्य ग्रर्थात् शब्द और अर्थ के सहभाव का अर्थ स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है कि शब्द और अर्थ का यह सहभाव केवल चाच्य वाचक-सम्बन्ध-रूप नहीं होना चाहिए— उसमे तो चक्रता- चैचित्रय गुणालंकार-सम्पदा की मानो परस्पर स्पर्धा रहनी चाहिए । अन्यथा केवल वाच्य वाचक सम्बन्ध होने से तो वह श्राह्लाद्
१ रिच एक्सपीरियस
२ चक्रनाविंचित्रगुणालकारसम्पदा परस्परस्पर्धाधिरोह॰ ।
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