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________________ राम-कथा - ब्यौरा पंडितजीको मालूम है, क्या कभी जीत सकेगा ! क्या बालक बालक और पण्डित महान् नहीं है ! लेकिन वहाँ बैठे बैठे मुझे प्रतीत हुआ कि दशरथके पुत्रवाले रामचन्द्रमें, जो कि पण्डितकी व्याख्याओंमे प्रत्यक्षतः अधिकाधिक ठोस होते जा रहे है, मेरे मनको उतनी प्रीति नहीं प्राप्त होती है जितनी बच्चोके 'रामजी' में। बच्चोंका रामजी, कुछ हो, मुझे प्यारा तो मालूम होता है। तमी पण्डितजीकी ओर मेरी निगाह गई । उन्होंने मुखपर हाथ फेरा, केशोंको तनिक संवारा, शिखा ठीक की, किंचित् स्मितसे मुस्कराये और अत्यन्त सुरीली वाणीमें तनिक अतिरिक्त मिठासके साथ ताल-लयके अनुसार रामायणकी चौपाई गा उठे। उनके निर्दोष गायन और पाण्डित्य-पूर्ण वक्तृत्त्वसे प्रभावित होकर मै सोचने लगा कि क्या सचमुच इस समय पंडितजीके निकट अपना वाणी-विलास, अपना वाक्-कौशल, अपनी ही सत्ता दशरथपुत्रकी सत्तासे अधिक प्रमुख और अधिक प्रलोभनीय नहीं है। मुझको ऐसा लगा कि उन पुण्यश्लोक रामचन्द्रको तो मै माने या न भी मानें; पर उनकी कथाको लेकर इन पंडितजीके मुँहसे अविराम निकलती हुई सुललित वाग्धाराको तो मुझे प्रामाण्य मानना ही होगा, कुछ ऐसा जादू पंडितजीमें था। मुझे प्रतीत हुआ कि राम-कथा साधन है, साध्य तो रामकथाका सुमिष्ट वाचन है। राम तो राम थे वह कमी रहे होंग; पर आज तो देखो, यह पंडितजी उस कथाका कैसा सुन्दर पारायण करते है ! कहो, पण्डितजी श्लाघनीय नहीं है ! मुझको वे बच्चे याद हो आये जो रामजीकी यादमे जैसे सुध-बुध बिसार बैठे थे। उनके लिए रामजी चाहे कितना ही अरूप-अव्यक्त ऐसा जादू पंडिनाराको तो मुझे प्राक मुँहसे अविराम मानें;
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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