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आधेय है । अतः स्थिरता सिद्धि नहीं, गति भी आवश्यक है । जीवन अस्तित्वसे अधिक कर्म है।" अब इसी कर्म-प्रश्नको जिस तरह गीतासे 'स्वभावस्तु प्रवर्तते' कहा गया है, जैनेन्द्र भी 'आप क्या करते हैं' जैसे बाह्यतः बुद्धपनस मरे दीखनेवाले निबंधमे, इस मजेदार सरलतासे प्रतिपादित कर डालते हैं कि देखते ही बनता है। किसी इन्श्योरन्स एजेंटके आग्रहसे चिढकर ही जैनेन्द्रने इस लेखकी सृष्टि कर डाली थी, वैने तो, आचार-शास्त्रसंबंधी कई प्रश्नोका समाधान मेरे द्वारा किये गये विविध प्रश्नोकी उत्तरावलीमें, जो पुस्तकके पीछे दी है, मिल जाता है। तो भी 'व्यवसायका सत्य' उपयोगिता' 'भेदाभेद,' आदि लेख भी इसी दृष्टिसे पढे जाने योग्य है । यहाँ एक मार्केकी बात है कि जैनेन्द्र कभी सामान्य समझ (Common sense) की भूमि नहीं छोड़ते। वह जैन मुनियोका सा कर्म-संवर और कर्मनिर्जरका असभाव्य उपदेश नहीं देते । जो भी हो, अपरिग्रहको वे एक राष्ट्रीय आवश्यकता समझते हैं।
अब आइए जैनेन्द्रके उस प्रिय लोकमे जहाँ उनको बारम्बार उड उड़ जाना भाता है । पुस्तक-समीक्षा तकमे जो अध्यात्म-भूमि उनसे नहीं छूटती, उसीके विषयमें कुछ कहें । क्या वहाँ कुछ भी कहना चलेगा ? शब्द भी वहाँ बन्धन हैं। 'मानवका सत्य,''सत्य, शिव, सुन्दर, "कला किसके लिए,' मुझे भेजे 'पत्राग' 'दूर और पास, 'निरा अबुद्धिवाद' आदि इसी दृष्टिसे लिखे गये सुन्दर निबंध हैं । जैनेन्द्रकी, जीव, द्रव्य, आत्मवरेण्यसंबंधी विचारावलीपर जैनधर्मकी छाया उतनी नहीं जितना वेदान्तका प्रभाव है । उसे पूर्णतः वेदान्त भी कहना गलत होगा। वह तो एक तरहसे सर्वसाधारणका लोक-धर्म है। वे 'अनुभव' में विश्वास करते हैं। श्रद्धाके एकमेव साधन होनेकी बात भी स्वीकार करते हैं । संसारके आदि और अन्तकी बात साधारण जनको ज्यादह उपयोगी नहीं, और ऐसी अलिस और विच्छिन्न एवं वादग्रस्त समस्याओंमे वे नहीं पडते । कुछ तर्क-प्रधानता अपने 'एक पत्र' में उन्होंने अवश्य अंगीकृत की थी। परन्तु, वैसे उनकी साधारण विचार-भूमि व्यावहारिक वेदान्तकी अथवा आवश्यकीय साधारण समझदारीकी है। रीड आदि स्कॉटिश दार्शनिकोके समान उन्होंने Common sense को ही पुनरुज्जीवित, स्पष्ट और अभिव्यक्त किया है। इसीसे मैं जैनेन्द्रके विचारों में जनताके साथ कई दशान्दियोतक टिके रहनेकी क्षमता पाता हूँ।