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________________ नेहरू और उनकी 'कहानी' सब जगह एक है और हर एक ज़िन्दगीमें वह है जो हमें लाभ दे सके । वस्तुतः जीवन एक क्रीड़ा है। सबका पार्ट अलग अलग है । फिर भी, एकका दूसरेसे नाता है । लेकिन, यदि एक दूसरेसे कुछ I पा सकता है तो वह उसका आत्मानुभव ही, अहंता नहीं । इस भाँति, आत्म-चरित अपनी अनुभूतियोंका समर्पण है । जवाहरलालजीका आत्म-चरित सम्पूर्णतः वह ही नहीं है। उसके समर्पणके साथ आरोप भी है, आग्रह भी है । लेखककी अपनी अनुभूतियाँ ही नहीं दी गई हैं, अपने अभिमत, अपने विधि - निषेध, अपने मतविश्वास भी दिये गये है और इस भाँति दिये गये है कि वे स्वयं इतने सामने आ जाते है कि लेखकका व्यक्तित्व पीछे रह जाता है । यहाँ क्या एक बात मै कहूँ ? ऐसा लगता है कि विधाताने जवाहरलालमे प्राणोंकी जितनी श्रेष्ठ पूँजी रक्खी उसके अनुकूल परिस्थितियाँ देनेकी कृपा उसने उनके प्रति नहीं की । परिस्थितियोंकी जो सुविधा जन-सामान्यको मिलती है, उससे जवाहरलालको वंचित रक्खा गया है । जवाहरलालजीको वाजिब शिकायत हो सकती है कि उन्हें ऊँचे घराने और सब सुखसुविधाओं के बीच क्यों पैदा किया गया ! इस दुर्भाग्यके लिए जवाहरलाल सचमुच रुष्ट हो सकते हैं और कोई उन्हें दोष नहीं दे सकता । इस खुश और बदनसीबीका परिणाम आज भी उनके व्यक्तित्वमेंसे घुलकर साफ नहीं हो सका है। वह हठीले समाजवादी हैं, इतने राजनीतिक हैं कि बिल्कुल देहाती नहीं हैं । सो क्यों ? इसीलिए तो नहीं कि अपनी सम्पन्नता ११७
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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