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________________ गाँधीने कहा-यह तो यह है और वह वह है । मै जानता हूँ, सब ठीक है । पर ठहरो नहीं, चले चलो। ___ जवाहरने कहा- ठहरो! ठहरो!! विना समझे चूके मै नहीं चलेगा। गाँधीने कहा- यह बहुत जरूरी बात है। ज़रूर समझ-बूझ लो। लेकिन मैं चला। __ गाँधी रुका था कि चल पड़ा। जवाहरलालने कहा-चलनेमें मै पीछे नहीं हूँ, लो, मैं भी साथ हूँ। लेकिन, समदूं वूमँगा ज़रूर । गाँधीने चलते चलते कहा-हॉ ! हाँ!! ज़रूर ! लेकिन, जवाहरलालकी मुश्किल तो यह थी कि गाँधीका धर्म उसका धर्म नहीं था। गाँधी बड़ी दूरसे चला आ रहा था । जानता था कि किस राह जा रहा हूँ और कहाँ जा रहा हूँ। जवाहरलाल परेशान, जानेके लिए अधीर, एक जगह किसी स्वप्न दूतकी राह देख रहा था। उसने कोई राह नहीं पाई थी कि पाया गाँधी । और जवाहर उसी राह हो लिया । पर, उस राहपर उसे तृति मिलती तो कैसे ? हरेकको अपना मोक्ष आप बनाना होता है। इससे, अपनी राह भी आप बनानी होती है, यह तो सदाका नियम है । इसलिए, चलते चलते एकाएक पटक कर जवाहरलालने गॉधीसे कहा- नहीं! नहीं !! नहीं !!! मैं पहले समझ लूँगा और बूम लूंगा। सुनो तो, इकोनॉमिक्स यह कहती है और पॉलिटिक्स वह । अब बताओ, हम क्यों न समझ-बूझ लें ! ___ गाँधीने कहा-~-ज़रूर समझ लो और ज़रूर बूझ लो। इकोनॉमिक्सकी बात भी सुनो । पर रुकना कैसा? मेरी राह लम्बी है! ११२ क्यों न ज़रूर रुकना कता
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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