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________________ वही प्रेम है । मुझे जान पड़ता है कि साहित्यका भी दूसरा कोई मंत्र नहीं है। प्रेमसे बाहर होकर साहित्यके अर्थमें कुछ भी जानने योग्य बाकी नहीं रहता। 'ढाई अच्छर प्रेमके पढ़े सो पण्डित होय' यह बात निरी कल्पना मुझे नहीं मालम होती, सबसे सच्ची सच्चाई मालूम होती है। एक जगह कबीरने बालक प्रहादके मुंहसे गाया है मोहे कहा पढ़ावत आल-जाल, मोरी पटियापै लिख देउ 'श्रीगोपाल' । ना छोहूँ रे बाबा राम नाम मोकों और पढ़नसों नहीं काम । कबीरकी बानीमें उसी प्रेमके माहात्म्यका गान मुझे सुन पड़ता है । न ऊपरकी उक्तिका, न कबीर-बानीका, यह आशय समझा जाय कि सब पढ़ना-लिखना छोड़ देना होगा । पर, यह मतलब तो ज़रूर है कि जो प्रेम-विमुख है, ऐसा, पढ़ना हो या लिखना, सब त्याज्य है । जिसमें केवल बुद्धिका विलास है, जिससे अपने भीतर सद्भावना नहीं जागती और जगकर पुष्ट नहीं होती, वैसा पढ़नालिखना वृथा है । और यदि वह पठन-पाठन निरुद्देश्य है, तो वृथासे भी बुरा है, हानिकारक है। गलत समझा जाऊँ, इस खतरेको भी उठाकर मै यह प्रतीति अपनी स्पष्ट कहना चाहता हूँ कि, जो जानता है कि वह विद्वान् है, ऐसे महापंडितको सँभालनेकी शक्ति शायद साहित्यमे नहीं है । साहित्य जिस तरल मनोभावनाके तलपर रहता है, ऐसे महापडितका स्थान उससे कहीं बहुत ऊँचेपर ही रह जाता है। ९२
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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