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________________ उठाई और किस बलपर मै उसे चलाता भी रहा । लेकिन, सच बात यह है कि यदि मुझे स्वप्नमें भी कल्पना होती कि मेरा लिखा छापेमें आ जायगा तो लिखनेका दुस्साहसिक कर्म मुझसे न बनता । इसीसे जब मै पढ़ता हूँ कि ईश-कृपासे बहरा भी सुन पड़ता और मूक बोल उठता है, और उस ईश-महिमासे पंगु भी गिरि लाँघ जाता है, तब, यह देखकर कि मैं आज लिखता हूँ, मुझे उस सब अनहोनी के होनेका भी विश्वास हो जाता है। इसलिए, घमंड-पाखंडकी सब बात परमात्मा ही जाने । उसकी कृपा ही हुई होगी कि मै कुछ लिख भी सका, नहीं तो---- लेकिन, उसे छोड़िए । अब मैं पूछता हूँ कि जो मैंने आरंभमें लिखा, क्या 'स्वान्तः सुखाय' लिखा ! मुझे नहीं मालूम । जो करता हूँ मैं अन्तःमुखके लिए करता हूँ या परिस्थितियोंके कारण करता हूँ,यह मै कुछ खोल कर समझ नहीं पाता हूँ। 'अलबत्ता इतना जानता हूँ कि आरंभमे जो लिखा, वह किसी भी प्रकार, किसीके उपकार, सुधार या उद्धारका प्रयोजन बाँध कर मैं नहीं लिख सका था। मैं तब इतना अज्ञातनाम, अपने आपमें इतना संत्रस्त, हीन, निरीह प्राणी था कि परहितकी कल्पना ही उस समय मुझे अपनी विडम्बना जान पड़ती। इसलिए, मै किस प्रकार इन चर्चाओंमें जाऊँ कि साहित्य-कला किसके लिए है, अथवा किसके लिए हो ! यह बात महत्त्वपूर्ण होगी, लेकिन, मैं उस बारेमें कोरा हूँ। हाँ, इधर आकर एक विश्वास मेरी सारी चेतनामे भरता-सा जाता है कि जो कुछ हो रहा है, वह सब-कुछ 'एक' के लिए हो
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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