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________________ एक प्रकारके उत्तरमे और एक नियतिके निर्देशसे ही एक रोज अनायास 'घर'के बीचमें आ पहुँचा है। पहुँच कर वह वहाँ स्वत्वारोपी लगभग है ही नहीं। अपनेसे विवश होकर ही जो है सो है। कवीन्द्रका 'घर' भिन्न है और 'बाहर' भी भिन्न है । वह 'घर' आत्म-तुष्ट-सा है, मानो 'बाहर' उसके निकट अभी अनाविष्कृत है। 'बाहर'का आगमन वहाँ एक रोज अप्रत्याशित अयाचित घटनाके रूपमें होता है । वह संदीप मित्र है; पर, यह मित्रत्व उसके व्यक्तित्वका अप्रधान पहलू है।मानो मित्र होना उसे मात्र सह्य है। वह आग्रहशील है, अधिकारशील है, मानो सहानुभूतिशील है ही नहीं। घरकी रानीका संदीपकी ओर खिंचना स्पष्ट गिरना है। जैसे संदीप अहेरिया है, जाल फैलाता है, और मक्खी फंसनेको ही उस ओर खिंच रही है। संदीप इस तरह कुछ अति-मानव,-अप-मानव हो उठता है। तदनुकूल भिन्नता सुनीता और कविकी मधुरानीमें भी है। मधुरानी बीचमें मानो स्खलन-मार्गपर चलकर अन्तमे प्रायश्चित्तपूर्वक पति-निष्ठामे पुनः प्रतिष्ठित होती है । संदीपका गर्व खर्व होता है और मधुरानीकी मोह-निद्रा भंग होती है । संदीपके लिए पलायन ही मार्ग है। क्योकि, मधुरानी अब पति-परायणा है। सुनीताको पतिपरायणता इतनी दुष्प्राप्य किसी स्थलपर नहीं हुई है कि प्रायश्चित्तका सहारा उसे दरकार हो । पतिमें उसकी निष्ठा उसे हरिप्रसन्नके प्रति और भी स्नेहशील और उद्यत होनेका बल देती है । आरम्मसे उसकी आँख खुली है और अन्त तक जो उसने किया और उससे हुआ है, उसमें वह मोह-मुग्ध नहीं है । प्रारम्भसे वह जागरूक है और कही गृहिणी-धर्मसे च्युत नहीं है। उस 'घर' में ६२
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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