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________________ - बना लिया जाय और दुनियाके प्रति अधीर और असन्तुष्ट रहा जाय कि वह क्यों सीधे तौरपर उस 'कोड' में बँधकर नहीं बैठती है, ऐसे क्या मिलेगा ? इस मनोवृत्तिमें सुधारका नशा मिल सकता है, पर, किसी हित अथवा किसी विद्याकी अभिवृद्धि इस भाँति कठिनतासे ही हो सकती है। इस वृत्तिसे पाठक बचे तो ठीक । उसे रसग्राही वृत्ति चाहिए । वह अपनेको खुला रक्खे, जमकर निर्जीव बन गई हुई धारणाएँ अपने पास न रक्खे | विद्वत्ताका बोझ बोझ ही है। उससे जीवनानन्दके प्रति खुले रहनेकी शक्ति ह्रस्व होती है । मैने अपने सम्बन्धमें पाया है कि जब जब चीज़को स्पर्द्धापूर्वक मैंने अधिकृत कर लेना चाहा है, तभी तब मेरी दरिद्रता ही मुझे हाथो लगी है । और जितना मैंने अपनेको किसीके प्रति खोलकर बहा दिया है उतना ही परस्परके बीचका अन्तर दूर हुआ है और एकता प्राप्त हुई है । ऐक्य बोध ही सबसे बड़ा ज्ञान है, और तबसे मैंने जाना है कि आत्मार्पणमें ही श्रात्मोपलब्धि है, आग्रह-पूर्ण संग्रहमें लाभ नहीं है । एक और तत्त्व ज्ञातव्य है । — कुछ भी, कोई भी, अपने आपमें महत्त्वपूर्ण नहीं है । कोई कथन अपने शब्दार्थमे और कोई घटना अपने सीमित अर्थमे सार्थक नही होती । सबका अर्थ विस्तृत है, - वह अर्थ निस्सीम में पहुँचने के लिए है । — उसी ओर उसकी यात्रा है। इससे, सब-कुछ मात्र संकेत रूपमे, इंगित रूपमें, ही अर्थकारी है । समप्रसे टूटकर अपने खंडित गर्वमें वह निरर्थक रह जाता है। निरर्थक ही क्यो, – इस भाँति वह अनर्थक भी है । इसलिए, प्रत्येक ५२ -
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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