SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपना सब कुछ भी जिसमें समाया है। बस, उसीके लिए तो यह सब रहना, करना, और लिखना है । अपने भीतर और बाहर उसी एकमात्र सत्यकी प्रतिष्ठा के लिए मै लिखूँ । 'विशाल भारत' ने जो 'जनता-जनार्दनाय ' लिखा है, वह ठीक लेकिन, क्या 'जनार्दनाय' मेरे निकट और भी ठीक न होगा क्योंकि, ' जनता ' में पशु-पक्षी कहाँ है, वनस्पति कहाँ है, यह आकार तारे कहाँ हैं ? और, 'जनार्दन ' में तो हमारा ज्ञान अज्ञान सब है लेकिन, 'जनार्दन' को आजकल कौन जाने, कौन माने ! इस आजकलकी भाषा में कहना हुआ, सत्यकी शोध, सत्यकी चर्चा सत्यकी पूजाके लिए हम लिखें । उसके बाद, गरीबके लिए लिखें, अमीरके लिए लिखे, साधारणचे लिए लिखें या किसके लिए लिखें, दुराचारी या सदाचारीके लिए के लिए या पुरुषके लिए, मनोरंजनके लिए या साधनाके लिए :-- ये बाते अधिक उलझन नहीं उपस्थित करती । सत्यके प्रसार और अंगीकारके लिए हम लिखते हैं। सत्यमे जे. बाधा है वही गिराना सत्यका ऐक्य है । कुछ एक दूसरेके निकट अछूत हैं, गलत समझे हुए ( misunderstood) हैं, आधे सम हुए (half understood ) हैं, कुछ त्याज्य हैं, दलित है, त्रस्त हैं, अपराधी है, श्रभियुक्त हैं, दीन है, बेजुबान हैं; — कुछ गर्बीले हैं, दर्पोद्धत है, रुष्ट है, निरंकुश है। यह सब सत्य है। यह क्यों ? मनुष्यकी अहंकृत मान्यताओंमें घुटकर जीवन एक समस्या बन गया है और अपने चारो ओर दुर्गकी-सी दीवारें खड़ी करके उनमें अपने स्वार्थको सुरक्षित बनाकर चलनेके लिए सब अपनेको लाचार ३४
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy