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________________ जब मैं कलह-वृत्तिका समूल नाश संभव मानता हूँ तब हाँ, एक चीज़का नाश नहीं है। वह चीज़ है युद्ध । युद्धको असंभव बना दे, तो जीवन भी असंभव ठहरता है। हम सॉस लेते हैं, तो इसमे भी संघर्ष, इसमें भी हिंसा है। लेकिन इससे पहली बात खंडित नहीं होती। वह इसलिए कि जीवन अलबतह युद्ध-क्षेत्र है। लेकिन समूच युद्ध-क्षेत्रको धर्म-क्षेत्र बनाया जा सकता है। मनुष्यताका त्राण इसीमें है। अर्थात् युद्ध किया जाय किन्तु धर्म-भावसे । कर्मके क्षेत्रमे कलह-हीन वृत्ति असंभव नहीं है, ऐसा मैं मानता हूँ। और चूंकि ऐसा मैं मानता हूँ इससे शान्ति प्रस्थापनके सतत प्रयत्नोकी अचूक निष्फलतासे भी मुझे निराश नहीं हो जाना होगा। प्रश्न-यह तो माना कि काम और अर्थ (=Sex and Money ) को आजके जमानेने जरूरतसे ज्यादा महत्त्व दिया है। पर क्या आप कोई व्यावहारिक (=Practical ) तरीके सुझा सकते हैं जिनसे उनका महत्त्व घट सके ? उत्तर-जिसको पूरे अर्थोंमे व्यावहारिक (=Practical ) कहें शायद ऐसा कोई तरीका इस वक्त मैं नही सुझा सकता। प्रैक्टिकल शब्दमें ध्वनि आती है कि उपाय संगठित हो, साधिक हो । उस प्रकारके संघ या संगठनकी योजना पेश करनेके लिए मेरे पास नहीं है । इस प्रकारका संकल्प (=Will) उत्पन्न हो जाय तो उस आधारपर संगठन भी अवश्य हो चलेगा । मेरा काम इस संकल्पको जगानेमे सहायक होनेका ही है। संकल्प जगा कि मार्ग भी मिला . क्खा है | The Will Shall have its way. जैसे पहले कहा, यहॉ भी अमोघ उपाय यह है कि व्यक्ति अपनेसे आरंभ करे । मैं मानता हूँ कि अब भी मानवीय व्यापारोको हम मूलतः देखे तो उनका आधार काम और अर्थमे नहीं, किसी और ही अन्तस्थ वृत्तिमे मिलेगा। उदाहरणार्थ परिवारको ही देखिए । परिवार समाजकी इकाई है, शासन-विधान (-State) की मूल पीठिका है। परिवारमे सब लोग क्या काम और अर्थक प्रयोजनको लेकर परस्पर इकडे मिले रहते हैं १ माता-पुत्र, पिता-पुत्री, माई-बहिन आदि नातोके बीचमें इस कामार्थ-रूप प्रयोजनको मुख्य वस्तु मानना परिवारकी पवित्रताको खींचकर नरकमें ला पटकनेके समान होगा। मैं कहता हूँ कि वह कामार्थी प्रयोजनका नाता दोको एक नहीं कर सकता । अधिकसे अधिक वह , दोको समझौतेके भावसे कुछ समयतक पास-पास रख सकता है। किंतु आपसमे २८०
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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