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________________ निरा अबुद्धिवाद शत्रु है और वह दूसरा भी हमारा शत्रु है – इस भाँति वह हमें वह भीतर है । भीतर बाँधे बैठी है। वह और हमें भयके बदला लेनेके नाना भरमाती है । पर हमारा शत्रु बाहर कहाँ, बाहरके द्विभेदपर हमारी बुद्धि अपना किला हमें परस्पर व्याप्त अभेद तो देखने ही नहीं देती मार्गसे अपने उन इस या उस शत्रुसे बचने या उपाय निरंतर सुझाती रहती है । पर ये सब शुतुरमुर्ग या शिकारीके उपाय हैं। वे सब मौतके निमंत्रणके उपाय है। शुद्ध बुद्धि व्यवसायात्मिका है और वह श्रद्धोपेत है । वह श्रभेदकी झाँकी देती है। वह विनीत बनाती है। वह जगत्के प्रति दृढ़ और परमात्मा के प्रति व्यक्तिको कातर बनाती है। उससे व्यक्ति अटूट, अजेय और अमर बनता है। वह मरता है पर अमर होनेके लिए, क्योंकि मृत्युमें उसे संकोच नहीं होता। ऐसी बुद्धि श्रज्ञेयमेसे रस लेती है और उसीमें अपना समर्पण करके रहती है। वह इस भाँति क्रमशः प्रशस्त और मुक्त होती जाती है । २२१
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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