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________________ दुबका लेनेसे क्या शुतुरमुर्ग सचमुच मयसे छुटकारा नहीं पाजाता ? फिर वह मर भी जाय तो क्या ? • मानना होगा कि प्रश्न अन्तमें किसी भी शत्रुसे बचनेका उतना नहीं है। उतना क्या, बिलकुल भी नहीं है। तमाम प्रश्न (उसके) भयसे बचनेका है । यह तो हम जानते ही हैं कि डरकर हम चाहे कितना ही भागें, हटें, छिपें, पर मौतके चंगुलसे बचना नहीं होगा। इस प्रकारके सब प्रयत्न निष्फल होंगे । अतः एक ही लक्ष्य हमारे सामने रह सकता है और वह यह कि मरनेकी घड़ी हम सीधे ढंगसे मर जायँ, पर मरनेसे पहले थोड़ा भी न मरे, अर्थात् , मरनेके भयसे बचे रहें। ___ क्या यही लक्ष्य नहीं है ? और क्या इसी लक्ष्यके साधनमें मनुष्यने धर्म-शास्त्र, नीति-शास्त्र, कला-विज्ञान आदि नहीं आविष्कृत किये ! फिर शुतुरमुर्गको मूर्ख क्यों कहते हो? _शुतुरमुर्गके वकीलके जवाबमें क्या कहा जावे ! पर एक तो भयसे बचनेकी पद्धति स्वयं भयका भय है । यह शुतुरमुर्गकी है। अधिकांशमें मानवके थन भी उसी पद्धतिके है । पर दूसरा, भयको निर्भयतासे जीतनेका उपाय है। इसमें भयसे छिपा नहीं जाता, उसपर विजय पाई जाती है । उसका सामना किया जाता है। शुतुरमुर्गने अपनेको रेतमें गाड़ लिया और भयसे बचा लिया। इस भाँति वह सहज भावसे मर गया। आदमीने धर्मकी सृष्टि की, उसमें अपनेको गाड़ लिया और राम-नाम लेता हुआ कृतार्थ भावसे मर गया । धर्मसे उतरकर उसने कर्तव्य, देश-भक्ति, त्याग, बलिदान आदि-आदि अन्यान्य मंतव्योकी सृष्टि की, जिनके भीतर निगाह गाड़े २१६
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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