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________________ दूर और पास जब दूरबीन पहले-पहल हाथ आई तब विलक्षण अनुभव हुआ । सुना था उससे दूरकी चीज़ पास दीख श्राती है । लेकिन मैने देखा तो पासकी चीज़ दूर हो गई थी। पीछे पता चला कि मैने दूरबीनको उल्टी तरफ से देखा था ! फिर सीधी तरफसे देखा तो बात सही थी । दूरकी चीज़ बेशक पास दीखती थी । लेकिन इस ग़लतीसे भी लाभ हुआ । जब पासकी चीज़को दूर बनाकर देखा था तब दृश्यकी सुन्दरता बढ़ गई जान पड़ती थी । दूरकी चीज़ पास या जानेसे दृश्यमें मोहकता उतनी न रह गई थी। पता चला - - दूरी मोह पैदा करती है, — Distance lends charm; दूरी मिट जाय तो सुन्दरताके बोधके लिए गुंजायश नहीं रहेगी । यह तो राह चलनेकी बात हुई । लेकिन जिस विचित्र अनुभवका जिक्र यहाँ करना है वह यह है कि जो चीज़ एक पोरसे दूरको पास करती है, वही दूसरी श्रोरसे पासको दूर बना देती है । अर्थात्, दूर होना और पास होना ये कोई निश्चित स्थितियाँ नहीं हैं । वे अपेक्षापेक्षी है । उनमें अदल-बदल हो सकता है । " दूरबीनकी मदद से ऐसा होता ही है। लेकिन बिना दूरबीनके भी आँख नित्य प्रति ऐसा करती है, यह भी सही है । आँखमें | तर - तमताकी शक्ति है । जो पासकी चीज़को देखती है वही आँख कुछ दूरकी चीज़ भी देख लेती है, आँखकी नसें यथानुरूप फैल - सिकुड़कर खकी इस शक्तिको कायम रखती है । २०२
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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