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________________ जरूरी भेदाभेद हवाई और शास्त्रीय कम हो जाती है और वह कुछ अधिक निकट, मानवीय और जीवित बन जाती है। मेरे लिए एक सवाल यह भी है कि मुझे रोटी मिले । मिलनेपर फिर सवाल होता है कि सममें, कैसे मिली ! इसी सवालके साथ लगा चला आता है पैसेका सवाल। वह पैसा काफी या और ज़्यादा क्यों नहीं आया ? या कैसे आये ! क्यों आये ? वह कहाँसे चलकर मुझतक आता है ? क्यो वह पैसा एक जगह जाकर इकट्ठा होता है और दूसरी जगह पहुँचता ही नहीं ? यह पैसा है क्या ?-ये और इस तरहके और और सवाल खड़े होते है । इन सब सवालोंके अस्तित्वकी सार्थकता तभी है जब कि मूल प्रश्नसे उनका नाता जुड़ा रहे । यह मैं आपको बताऊँ कि शङ्काकी प्रवृत्ति मुगमे खूब है । शङ्कामोके प्रत्युत्तरमे ही मेरा लेखन-कार्य सम्भव होता है। तब यह तो आप न समझिए कि मैं बहुत तृप्त और सन्तुष्ट जीवन जीता हूँ। लेकिन, सोशलिज्मके मामलेमे दखल देनेके लिए ऐसा मालूम होता है कि मुझे विचारकसे अधिक विद्वान् होना चाहिए । विद्वान् मै नहीं हो पाता । किताबें मै पढ़ता हूँ, फिर भी वे मुझे विद्वान् नहीं बनातीं । मेरे साथ तो रोग यह लग गया है कि अतीतको मै आजके सम्बन्धकी अपेक्षामें देखना चाहता हूँ, भविष्यका सम्बन्ध भी आजसे बिठा लेना चाहता हूँ और विद्याको जीवनपर कसते रहना चाहता हूँ। इसमें, बहुत-से अतीत और बहुत से स्वप्न और बहुत-सी विद्यासे मुझे हाथ धोना पड़ता है। यह दयनीय हो सकता है और मै कह सकता हूँ कि आप मुझे मुझपर छोड़ दे । सोशलिज्मका मैं कृतज्ञ हूँ, उससे मुझे व्यायाम मिलता है । वह अच्छे वार्तालापकी चीज़ है । लेकिन आज और १५९
SR No.010066
Book TitleJainendra ke Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1937
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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