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जैन तत्त्वादर्श
छान्दसत्वाच्च श्रेयांस इत्युच्यते " - सर्व जगत का जो हित करे सो श्रेयांस । " यद्वा गर्भस्थेऽस्मिन् केनाप्यनाक्रान्तपूर्वदेवताधिष्टितशय्या जनन्याक्रान्तेति श्रेयो जातमिति श्रेयांसः " भगवान जब गर्भ में थे तब भगवन्त के पिता के घर में एक देवताधिष्ठित शय्या थी । उस पर जो बैठता था उसही को * समाधि उत्पन्न होती थी । भगवन्त की माता को उसी शय्या पर सोने का दोहद उत्पन्न हुवा । माता उसी शय्या पर सोई । देवता शान्त भया - उपद्रव न करा, इस हेतु से श्रेयांस ।
१२- तत्र वसूनां पूज्यः वसुपूज्यः", "वसवो देवाः " - वसुओं करी जो पूजनीक होवे सो वसुपूज्य, वसु कहिये देवता, "वसुपूज्यनृपतेरपत्यं वासुपूज्यः " - वसुपूज्य नामा राजा का जो पुत्र सो वासुपूज्य | " वासवो देवराया तस्स गन्भगयस्स अभिक्खणं अभिक्खणं जणणीए पूयं करेइ तेण वासुपुजोत्ति, अहवा वसूणि रयणाणि वासवो - वेसमणो सो गब्भगए, अभिक्खणं, अभिक्खणं तं रायकुलं रयणेहि पूरेइत्ति वासुपुज्जोत्ति" । [प्रा० नि० हारि० टी० गा० १०८५] स्यार्थः- वासव नाम इन्द्र का है, सो भगवान् जब गर्भ में प्राये तब बार बार इन्द्र ने भगवन्त की माता को पूजा इस कारण से वासुपूज्य । अथवा वसु कहिये रतन, अरु वासव नाम है वैश्रमण का, सो वैश्रमण जब भगवान् गर्भ में थे तब बार बार तिस राजा के कुलको रत्नों करी पूरण करता भया, इस हेतु से वासुपूज्य ।
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* आकुलता - बेचैनी
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