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प्रथम परिच्छेद
वन्त परमेश्वर है अपर कोई परमेश्वर नहीं ।
अथ अर्हन्त के नाम दो श्लोकों करि लिखते है:
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अर्हन् जिनः पारगतस्त्रिकालवित् क्षीणाष्टकर्मा परमेष्ठ्यधीश्वरः । शम्भुः स्वयम्भूर्भगवान् जगत्प्रभुस्तीर्थङ्करस्तीर्थकरो जिनेश्वरः ॥ स्याद्वाद्यभयदसार्वाः सर्वज्ञः सर्वदर्शिकेवलिनौ । देवाधिदेववोधिदपुरुषोत्तमवीतरागाप्ताः ॥
[ अभि० चि०-कां० १, श्लो० २४-२५] इन दोनों श्लोकों का अर्थ :- १. " अर्हन्" चौतीस अतिशय करी, सबसे अधिक होने से, तथा सुरेन्द्र आदिकों की करी हुई अष्ट महाप्रातिहार्य, और जन्मस्नात्रादि पूजा के योग्य होने से अर्हन्, अथवा ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मरूप वैरी को हनने से अर्हन्, अथवा वध्यमान कर्म रज के हनने से अर्हन्, अथवा नहीं है कोई पदार्थ छाना जिन्हों के ज्ञान में सो अर्हन् । तथां नामान्तर में अरुहन्- नहीं उत्पन्न होता भवरूपी अंकुर जिनों के सो अरुहन् । २. "जिनः " - जीते हैं राग, द्वेष, मोहादि अष्टादश दूषण जिसने सो जिन । ३. "पारगतः " जो संसार के अथवा प्रयोजन जात के प्रयोजन
परमात्मा के विविध नाम
मात्र के पार अन्त को गत प्राप्त हुआ है, एतावता संसार में जिसका कोई प्रयोजन नहीं सो पारगत । ४. " त्रिकालवित्"