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जैनतत्त्वादर्श
पंदरवां दूषण "निद्रा" है- सो जो निद्रा में होता है, सो निद्रा में कुछ नहीं जानता और अर्हन्त भगवान तो सदा सर्वज्ञ है, सो निद्रावान् कैसे होवे ?
सोलवां दूषण "अप्रत्याख्यान" है - सो जो प्रत्याख्यान रहित है वोह सर्वाभिलाषी है सो तृष्णावाला कैसे अर्हन्त भगवन्त हो सके ?
सतारवां और अठारवां-ए दोनों दूषण राग अरु द्वेष हैं । सो रागवान्, द्वेषवान् मध्यस्थ नहीं होता । अरु जो रागी द्वेष होता है तिस में क्रोध, मान, माया का सम्भव हैं । भगवान तो वीतराग, सम शत्रु मित्र, सर्व जीवों पर समबुद्धि, न किसी को दुःखी अरु न किसी को सुखी करे है । जेकर दुःखी, सुखी करे तो वीतराग, करुणा समुद्र कभी भी नही हो सकता । इस कारण तें राग द्वेष वाला अर्हन्त भगवन्त परमेश्वर नहीं । ए पूर्वोक्त अठारह दूषण रहित अर्हन्त भग
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* अष्टादश दोष कर्मजन्य हैं, अतः जिस आत्मा में यह दोष उपलब्ध होंगे उस में कर्ममल अवश्य ही विद्यमान होगा । और कर्ममल से जो आत्मा लिप्त है वह जीव अथवा सामान्य आत्मा है, परमात्मा नहीं । क्योंकि कर्ममल से सर्वथा रहित होना ही परमात्मपद की प्राप्ति अथवा आत्मा का सम्पूर्ण विकास है । इम लिए जो आत्मा कर्ममल से सर्वथा रहित हो गया है वही परमात्मा है और उस में यह दोष कभी नही रह सकते । अत: सामान्य आत्मा और परमात्मा की परीक्षा के लिए उक्त दोषों का जानना अत्यन्त आवश्यक है ।