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तृतीय परिच्छेद
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कोई जोव नहीं है, जिस को ए महाव्रत मोक्षपद में न पहुंचा देवें ।
व प्रथम महाव्रत की पांच भावना लिखते हैं:मनोगुप्त्येपणादाने-र्याभिः समितिभिः सदा । दृष्टान्नपानग्रहणे - नाहिंसां भावयेत्सुधीः ॥
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[ यो० शा०, प्र० १ श्लो० २६ ] अर्थ:- १. मनोगुप्ति मन को पाप के काम में न प्रवर्त्ता, किंतु पाप के काम से अपने मन को हटा लेवे । जेकर, पाप के काम में मन को प्रवर्त्तावे, तो चाहे बाह्य वृत्ति करके हिसा नहीं भी करता, तो भी प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की तरे सातमी नरक में जाने योग्य कर्म उत्पन्न कर लेता है । इस वास्ते मुनि को मनोगुप्ति अवश्य रखनी चाहिये ।
२. एग्णासमिति -- - चार प्रकार की आहारादिक वस्तु - धाकर्मादिक बेतालीस दूपण से रहित लेवे । वेतालीस दूषण का पूरा स्वरूप देखना होवे, तो पिडनिर्युक्ति शास्त्र ७००० श्लोक प्रमाण है, सो देख लेना। ३. आदाननिक्षेप जो कुछ पात्र, दण्ड, फलक प्रमुख लेना पडे, तथा भूमिका के ऊपर रखना पडे, तव प्रथम नेत्रों से देख लेना, पीछे रजोहरण करके पूंज लेना, पीछे से लेना और यत्न से रखना । क्योंकि बिच्छु सर्पादिक अनेक ज़हरी जीव जेकर उस उपकरण के ऊपर बैठे हो, तब तो काट खावें अरु दूसरा कोई बिचारा
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