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भगवद्गीता और आत्मपुराण की रचना शैली को देखें । इन में वाक्य रचना और विषय निरूपण में एक ही प्रकार की पद्धति का अनुसरण किया गया है, इस लिये प्रस्तुत ग्रन्थ की रचनाशैली में विभिन्नता होने पर भी उस की उपादेयता में कोई अंतर नहीं पड़ता ।
ग्रंथ की प्रमाणिकता -
प्रस्तुत ग्रन्थ में जितने भी विषयों का निरूपण किया गया है, और जिस अंश तक उन का विवेचन किया है, वे सव प्रामाणिक जैनाचार्यों के ग्रन्थों के आधार से किया गया है, और उन प्राचीन शास्त्रों के आधार के विना प्रस्तुत ग्रन्थ में एक बात का भी उल्लेख नहीं, इस लिये प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रामाणिकता में अणुमात्र भी सन्देह करने को स्थान नहीं ।
ग्रंथ की उपादेयता -
प्रस्तुत ग्रंथ का रचनासमय भी एक विचित्र समय था, उस समय सांप्रदायिक संघर्ष आज कल की अपेक्षा भी अधिक था । एक सम्प्रदाय वाला दूसरे सम्प्रदाय पर आक्षेप करते समय सभ्यता को भी अपने हाथ से खो बैठता था। तात्पर्य कि उस समय साम्प्रदायिक विचारों का प्रवाह ज़ोर शोर से वह रहा था । और कभी २ तो तटस्थ विचार वालों की भी पगडियें उछाली जाती थीं । ऐसी दशा में एक सुधारक धर्माचार्य को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता होगा, इस की कल्पना सहज ही में की जा सकती है । इस के अतिरिक्त उस काल में जैन धर्म