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[११२] होनेपरभी अभेदविवक्षासे उस एकही पदार्थका ग्रहण होता है तथा : . समभिरूढनयमें सास्नादिमान् पदार्थ चाहे गतिरूप परिणमैं चाहे अन्यः । क्रियारूप परिणमें परन्तु अभेदविवक्षासे उसमें गो शब्दकीही प्रवृत्ति ... होती है इसलिये शब्द और समभिरुढ इन दोनों नयोंसे अभेद । प्रतिपादन होता है, और एवंभूतनयमें जिस क्रियाका वाचक वह शब्द है उसही क्रियारूप जब वह पदार्थ परिणमै है उससमय वह. पदार्थ उस शब्दका वाच्य है इसलिये एवंभूतनयमें भेद कयन है.. : अथवा दूसरी तरहसे दो प्रकारकी कल्पना है, अर्थात् एक पदार्यमें. अनेक शब्दोंकी प्रवृत्ति है १ तथा प्रत्येक पदार्थवाचक प्रत्येक शब्द . है २, जैसे शब्दनयमें एक पदार्थके वाचक अनेक शब्द हैं और. समभिरूढनयमें पदार्थपरिणतिके निमित्तकेविना एक पदार्थका वाचक एक शब्द है तथा एवंभूतनयमें पदार्थकी वर्तमान परिणतिक निमित्तसे. एक पदार्थका वाचक एक शब्द है।
(शंका) एक पदार्थमें अस्तित्व नास्तित्वादिक परस्पर विरुद्ध धर्म. होनेसे विरोध दोष आता है ।
(समाधान) एक वस्तुमें अस्तित्व नास्तित्वाधिक धर्म अपेक्षासे कहे हैं इसलिये इनमें विरोध नहीं है और न विरोधका लक्षण यहां घटित होता है उसका खुलासा इसप्रकार है कि, विरोधके तीन : भेद हैं १ वध्यघातक, २ सहानवस्थान, और ३ प्रतिवन्ध्य प्रति-'. बन्धक, सो सर्प और न्यौलेमें तथा अग्नि और. जलमें वध्यघातकरूप . विरोध है, यह बध्यघातक विरोध एक कालमें विद्यमान दो पदार्थोके . संयोगसे होता है । संयोगके विना जल, अग्निको बुझा नहीं सकता। यदि संयोगके विना भी जल अग्निको वुझा देगा, तो संसारमें अग्निके अभावका प्रसंग आवेगा । इसलिये संयोग होनेके पश्चात् वल्वान्