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[७०] . अर्थात् हैही नहीं वह आवेगा कहांसे और: जो है वह जायगा कहां : इस कारण यह निश्चित सिद्धान्त है कि, असत्का उत्पाद और सत्का विनाश कदापि नहीं होता । द्रव्यको जो नित्यानित्यात्मक कहा है उसका खुलासा इसप्रकार है कि, जब " सत्का विनाश कभी नहीं होता" ऐसा सिद्धान्त निश्चित है तो समस्त द्रव्य नित्य हैंही। इससे नित्यपक्ष तो स्वयंसिद्ध है; अब द्रव्यको जो कथंचित् अनित्य कहा है उसका अभिप्राय यह हैं कि, द्रव्यमें अनित्यताका कथन दो प्रकारसे है, एक तो व्यंजनपर्यायकी अपेक्षासे और दूसरा अर्थपर्यायकी अपेक्षासे । द्रव्यकी व्यक्तिके विकारको व्यंजनपर्याय कहते हैं । जैसे एक जीव पहले मनुष्य व्यक्तिरूप था वही जीव पीछे हस्ती व्यक्तिरूप हो गया। इसहीका नाम व्यंजनपर्याय है। इस अवस्थामें ऐसा कहनेका व्यवहार है कि, मनुष्यका नाश हुआ और हाथी उत्पन्न हुआ; परंतु जो परमार्थसे विचारा जाय तो नतो किसीका नाश हुआ है और न किसीकी उत्पत्ति हुई है । किंतु जैसे एक सोनेका पांसा है; उसको एक सुनारने ठोककर किंचित् लंबा करके और मोड़कर उसका एक कड़ा बना दिया। अब यहां जो परमार्थसे देखा जाय तो न तो किसीका नाश हुआ है और न किसीकी उत्पत्ति हुई है । किंतु जो सोना पहले पांसेके आकार था वही अव कड़ेके आकार हो गया अर्थात् पहले उस सोनेने आकाशके जो प्रदेश रोके थे वे प्रदेश अब नहीं रोके हैं, किन्तु दूसरेही प्रदेश रोके हैं । भावार्थ:-सुवर्ण द्रव्यका देशसे देशान्तर मात्र हुआ है; न किसीका नाश हुआ है और न किसीकी उत्पत्ति हुई है। केवल आकारका भेद हुआ है; और आकारभेदमें देशसे देशांतरही है; उत्पत्ति विनाश. कुछभी नहीं है। इसही प्रकार. जीवभी मनुष्यके आकारसे हाथीका आकार हुआ है।