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________________ [ ६९ ] I समवर्ती आकारकी अपेक्षासे द्वितीयादि समयवर्ती आकारों में कुछ अंश दश होता है और कुछ असदृश । यो असदृश सूक्ष्मभेद इन्द्रियद्वारा ग्रहण नहीं होता; और सदृशस्थूल परिणाम इन्द्रियद्वारा ग्रहण होता है । वह । अनेक समयों में एकसा है इसलिये स्थूलपर्याय चिरस्थायी कहा है और इसी अपेक्षासे पर्यायको कथंचित् धाव्यस्वरूप कहा है। जिसप्रकार सूक्ष्मस्थूल पर्यायमें लक्षणभेदसे भेद है उसही प्रकार व्यतिरेक और क्रमभी लक्षणभेदसे भेद है | स्थूलपर्याय में अनेक समयों में दशांश ( सदृश हैं अंश जिसके ) सत् ( द्रव्य ) का जो प्रवाह - रूपसे अंशविभाग पृथक् है उसको व्यतिरेक कहते हैं । भावार्थ:स्थूलपर्याय में जो आकार प्रथम समयमें है उसहीके सदृश आकार दूसरे सनयमें है । इन दोनों आकारोंमें पहला है सो दूसरा नहीं है और दूसरा है सो पहला नहीं है | इसकोही व्यतिरेकीपन कहते हैं; और एकके पीछे दूसरा होना, इसको क्रम कहते हैं । यह वह है अथवा अन्य है इसकी यहां विवक्षा नहीं है । " एकके पीछे दूसरा होना " इस यक्षरूपक्रम यह वह नहीं है " इस लक्षणरूप व्यतिरेकका कारण है। इसलिये क्रम और व्यतिरेकमें कार्यकारण भेद है | ( शंका ) पहले कह आये हो कि, " जो पहले था सोही यह है अथवा जैसा पहले था वैसाही है " और अब क्रम और व्यतिरेकमें इससे विपरीत कहा इसमें क्या प्रमाण है ? (समाधान) इसका अभिप्राय ऐसा है कि जिसप्रकार द्रव्य स्वतः सिद्ध नित्य है उसी प्रकार परिणामी भी 66 , है | इसलिये प्रदीप शिखांकी तरह प्रतिसमय पुनः २ परिणमै है । ( शंका ) तो यह परिणाम पूर्वपूर्व भाव के विनाशसे अथवा उत्तर २ भाव के उत्पाद होता है ? (समाधान) सो नहीं है नतो किसीका उत्पाद होता और न किसीका नाश होता जो पदार्थ असत् है
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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