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________________ [४१] 'शुद्ध जीवके जो ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य हैं वे जीवके स्वभावगुणपर्याय हैं. मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान,, कुम: 'तिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, कवधिज्ञान, ये जीनके विभावगुणपोया हैं। . मुक्तजीवके जो अंतिम शरीरके आकार प्रदेश हैं सो जीवकी स्वभावद्रव्यपर्याय है: संसारी जीवका जो शरीराकार परिणाम है उसको जीवकी विभावद्रव्यपर्याय कहते हैं । ‘परमाणुमें जो स्पर्श; रस, गन्ध, वर्ण, होते हैं वे पुद्गलकी स्वभावगुणपर्याय हैं, स्कन्धोंमें जो स्पर्शः रस- गन्ध वर्ण होते हैं वे पुद्गलकी विभावगुणपर्याय हैं ।. ___ जो अनादिनिधन कार्यरूप अथवा कारणरूप पुद्गलपरमाणु है सों पुगुलकी स्वभावद्रव्यपर्याय है. पृथिवी, जलादिक जो नानाप्रका-रके स्कंध हैं वे पुद्गलकी विभावद्रव्यपर्याय हैं: विभावपर्यायः जीव और पुद्गलमेंही होती है। . धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्यमें · स्वभावपर्यायही होती है, विभावपर्याय नहीं होती। धर्मद्रव्यमें गतिहेतुत्व, अधर्मद्रव्यमें स्थितिहेतुत्व, आकाशद्रव्यमें अवगाहहेतुत्व, कालद्रव्यमें वर्तनाहेतुत्व स्वभावगुणपर्याय हैं। धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य, और. कालद्रव्य जिस जिस प्रकारसे संस्थित हैं वे उनकी स्वभावद्रव्यपर्याय हैं । समस्त. द्रव्योंमें अगुरुलघुगुणका जो. परिणाम होता है, वे सत्र द्रव्योंकी स्वभावगुणपर्याय हैं . . . . .:. आगे द्रव्यके दूसरे सत्लक्षणकाः स्वरूप. लिखते हैं। ...
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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