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________________ [६] भरा हुआ है, वह लोहसे ही साफ नहीं हो सकता है। इस ही तरह जो खयं अज्ञान रूप है वह अज्ञानको नहीं हटा सकता है इसलिये प्रमाणका “सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्"-सचे ज्ञानको प्रमाण कहते हैं यह लक्षण, निर्विवाद समीचीन सिद्ध हुआ । प्रमाणमें प्रमाणता, यानी सच्चे ज्ञानकी सचाई, वही है, जो, ज्ञानने जिसको विषय किया जिस पदार्थका ज्ञान हुआ, उस पदार्थका यथार्थमें वैसा ही होना । यदि किसी आदमीको साँप देखकर " यह साँप है" इस प्रकार ज्ञान हुआ, तो हम उसके ज्ञानको, सच्चा प्रमाणात्मकः ज्ञान कहेंगे, और यदि किसी आदमीको, जो कि वास्तवमें एक डोरी थी, उसमें “ यह साँप है " इस प्रकारका ज्ञान हुआ तो हम उसके ज्ञानको, मिथ्या-अप्रमाणात्मक ज्ञान कहेंगे ! कारण. कि. जिसका उसे ज्ञान हुआ, यथार्थमें वह चीज वहाँ पर नहीं है वजाय उसके, और ही कोई चीज वहाँ पर है। इन दोनों ही (प्रमा णात्मक-अप्रमाणात्मक ) ज्ञानोंमें, जुदे जुदे कारणोंकी आवश्यकता . होती है । कितने ही लोगोंका कहना है कि जिन कारणोंसे सामान्य ज्ञान पैदा होता है, उन · ही कारणोंसे, प्रमाणात्मक ज्ञानकी भी उत्पत्ति होती है, उसमें अन्य कारणान्तरोंकी आवश्यकता नहीं है। इतना जरूर है कि चक्षुरादि इंद्रियोंमें कोई विकार होनेसे, या अन्य कोई कारणोंसे, ज्ञान, अप्रमाण हो जाता है । इस विषयमें न्याय-. का यह सिद्धान्त है कि जो भिन्न २ कार्य होते हैं, वे भिन्न भिन्न कारणोंसे पैदा हुआ करते हैं, जैसे मिट्टीसे घट और . तन्तुओंसे पट । इस ही तरह प्रमाणात्मक अप्रमाणात्मक ज्ञान भी, दों कार्य हैं, वे भी अपने भिन्न २ कारणोंसे पैदा होंगे । यदि ऐसा न माना जायंगा तो यह प्रमाण है और यह अप्रमाण है, इस प्रकारकाः
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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