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________________ [ ४ ] रहकर और अपने लक्ष्यके सब देशोंमें रह कर, दूसरोंसे व्यावृत्ति करनेका कारण हैं, वही सल्लक्षण हैं । अब प्रमाणके स्वरूपका वर्णन करते हैं । . प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम् प्रकर्षेण - संशयादिव्यवच्छेदेन मीयते परिच्छिद्यते ज्ञायते वस्तुतत्त्वं येन तत्प्रमाणम् अर्थात् संशय, विपर्यय, अनध्यवसायादिकको दूर करते हुए, जिसके द्वारा वस्तुका स्वरूप जाना जाय; उसे प्रमाण कहते हैं । यह प्रमाण शब्द, प्र उपसर्गपूर्वक मा धातुसे, करण अर्थमें, ल्युट् प्रत्यय करनेसे सिद्ध होता है. इसमें प्र शब्द का अर्थ, प्रकर्षपणा है, यानी संशय आदिक मिथ्याज्ञानकी निवृत्ति करते हुए है और मा धातुका अर्थ, ज्ञान है और करण अर्थमें: ल्युट्प्रत्यंयका अर्थ, साधकतम करण ( ययापारादनन्तरमव्यवहितत्वेन क्रियानिष्पत्तिस्तत्साधकतमंत देवकरणम् अर्थात् जिसके . व्यापारके अनन्तर ही, वे रोक टोक क्रियाकी निप्पत्ति होती हैं, उसे. साधकतम करण कहते हैं ) है । इन सबके कहनेका मतलब यह है कि ““ सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम् " सच्चे ज्ञानको प्रमाण कहते हैं । जो मिथ्याज्ञान होते हैं, वे प्रमाण नहीं हो सकते । कारण.. कि प्रमाणसे जो पदार्थ जाने जाते हैं, उस विषयका अज्ञान हट जाता है । परन्तु संशयादिक मिथ्याज्ञानसे, उस विषयका अज्ञान नहीं हटता - वस्तुका ठीक खरूप नहीं मालूम होता । और जो ज्ञानरूप नहीं होते · .. भी प्रमाण नहीं हो सकते। जैसे घटपटादिक, कारण कि हितकी प्राप्ति और अहितका परिहार करनेके लिये, विद्वान् और परी - क्षक जन, प्रमाणको बतलाते हैं । और हितकी प्राप्ति, अहितका परिहार, बिना ज्ञानके नहीं हो सकता । इसलिए सच्चे ज्ञानको प्रमाण्ह .
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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