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________________ [१७६] न्द्रिय जीव भोगभूमिमें नहीं होते अर्थात् पंद्रह कर्मभूमि और उत्तरार्द्ध अन्तिम द्वीप तथा समस्त अन्तिम समुद्रमें ही विकलत्रयः जीव है । तथा समस्त द्वीपसमुद्रोंमेंभी भवनवासी और व्यंतरदेव निवास करते हैं। ___ यद्यपि कल्पकालका कथन कालाधिकारमें करना चाहिये था, परंतु कर्मभूमि और भोगभूमिसे उसका घनिष्ट सम्बन्ध है । इसकारण प्रसङ्गवश यहां कुछ कल्पकालका कथन किया आता है । वीस कोडाकोडी अद्धासागरके समयोंके समूहको कल्प कहते हैं । कल्पकालके दो भेद हैं एक अवसर्पिणी और दूसरा उत्सर्पिणी । अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी इन दोनोंही कालोंका प्रमाण दश दश. कोडाकोडी सागरका है। अवसर्पिणीकालके छह भेद हैं, १ सुषमासुषमा, २ सुषमा, ३ सुषमादुःषमा, ४ दुःषमासुषमा, ५ दुःषमा और ६ दुःषमादुःषमा । उत्सर्पिणीके भी छह भेद, विपरीतक्रमसे हैं । १ दुःषमादुःषमा, २ दुःषमा, ३ दुःषमासुषमा, ४ सुषमादुःषमा, ५ सुषमा, और ६ सुषमासुषमा । सुषमासुषमाका प्रमाण चार कोडाकोडी सागर है । सुषमाका प्रकार तीन कोडाकोडी । सागर है । सुषमादुःषमाका प्रमाण दो कोडाकोडी सागर है। दुःषमासुषमाका प्रमाण ४२००० वर्ष घाटि एक कोडाकोडी सागर है । दुःषमाका प्रमाण २१००० वर्ष है, तथा दुःषमादुःषमाका भी . प्रमाण २१००० वर्ष है । पांच मेरुसंबंधी पांच भरतक्षेत्र तथा पांच ऐरावत क्षेत्रोंमें अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीके छह २ कालोंके द्वारा वहां रहनेवाले जीवोंके आयुः शरीर बल वैभवादिककी हानि वृद्धि . होती है । भावार्थ:-अवसर्पिणीके छहों कालोंमें क्रमसे घटते हैं। और उत्सर्पिणीके छहों कालोंमें क्रमसे बढ़ते हैं । अवसर्पिणीकालके
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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