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________________ [ १५४ ] 1 1 हैं, और साध्यके विना जिसका सद्भाव नहीं हो उसको साधन कहते हैं । सान्य साधनके इस अविनाभावसंबंधको व्याप्ति कहते. हैं । संसारमें कारणके विना कोई भी कार्य नहीं होता है, इसलिये कार्यकी कारणके साथ व्याप्ति है अर्थात् कार्यसे कारणका अनुमान होता है । कारणके दो भेद हैं, एक उपादान कारण, दूसरा निमित्त कारण । जो पदार्थ स्वयं कार्यरूप परिणमता है, उसको उपादान कारण कहते हैं । जैसे घटका उपादान कारण मृत्तिका (मिट्टी ) है । और जो पदार्थ स्वयं तो कार्यरूप नहीं परिणमता है, किन्तु उपादनकारणके कार्यरूप परिणमनमें सहकारी होता है, उनको.. निमित्तकारण कहते हैं । जैसे घटकी उत्पत्तिमें दण्डचक्रकुंभकारादि । निमित्तकारणके दो भेद हैं, एक प्रेरकनिमित्तकारण और दूसरा. उदासीननिमित्तकारण । प्रेरकनिमित्तकारण उसको कहते हैं, जो प्रेरणापूर्वक परको परिणमावै । जैसे कुंभकारके चक्र के भ्रमणरूप कार्यमें दंड और कुंभकार प्रेरकनिमित्तकारण हैं । जो परको प्रेरणा तो करता नहीं है और उसके परिणमनमें उदासीनतासे सहकारी होता है, उसको उदासीननिमित्तकारण कहते हैं । जैसे चक्रके भ्रमणरूप कार्यमें कीली ( जिसके ऊपर रक्खा हुआ चक्र भ्रमण करता है ) जो चक्र भ्रमण करै, तो कीली सहकारिणी हैं, स्वयं. दण्डकी तरह चक्रको नहीं घुमाती है । किन्तु बिना कीलीके चक्र. नहीं घूम सकता । इसहीलिये कीली चक्र के भ्रमणमें कारण है । संसारमें एक कार्यकी सिद्धि एक कारणसे नहीं होती है, किन्तु. कारणकलापकी ( समूहकी ) एकत्रतासे ( सिद्धि ) होती है । जैसे: दीपकरूप कार्यकी उत्पत्तिमें तेल, बत्ती, दियासलाई आदि अनेक कारण हैं । ये तेल बत्ती आदिक जुदे जुदे दीपकरूप कार्यके.. -
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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