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अहिंसा का सिद्धान्त जैनमत की सबसे बड़ी विशेषता है । वास्तव मे इसी सिद्धान्त की नींव पर जैनमत स्थित है । लेकिन इस सिद्धान्त को विदेशी और कतिपय देशी इतिहास - कारों ने जो भारत की अधोगति का कारण माना है, वह मिथ्या है । अन्य मतावलम्बियों की बात तो दूर, स्वयं अहिसात्रतावलम्बी जैनों ने ही कर्मक्षेत्र में जिस कर्तव्यपरायणता का उदाहरण उपस्थित किया है, वह सर्वथा स्तुत्य है । जहॉ जैन साधुत्रों ने अहिंसा को तपस्या की सीढ़ी तक पहुंचा दिया है, वहाँ कर्म क्षेत्र मे निरत रहनेवाले जैनों ने उसे कर्मयोग की दृष्टि से देखा और समझा है । देश की स्वतन्त्रता की रक्षा के समय उन्होंने अहिसा को कभी अपने मार्ग की बाधा नहीं होने दिया है। जिन जैन वीरों के हाथ में प्रजापालन हिंसा को । और अहिसा की आड़ मे भीरुता आज हम दक्षिण भारत के कुछ
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और देश-रक्षा का भार आया था, उन्होने अहिसा मे कर्म को देखा और कर्म में
कर्म के दर्शन में उन्होंने अहिंसा - दर्शन को घुला मिला दिया को छिपानेवालों के आगे मार्ग- प्रदर्शक का काम किया। ऐसे ही जैन वीरों का इतिहास उपस्थित करते हैं
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दक्षिण भारत के जैन वीर
लेखक - श्री त्रिवेणी प्रसाद, बी० ए० ]
चामुण्डराय
जैन-इतिहास में चामुण्डराय का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है । वे केवल वीर ही नहीं बड़े भारी कवि भी थे । 'चामुण्डराय - पुराण' (जिसका समय ९७८ ई० माना जाता है) उन्हींये गंगवंश के राजा मारसिंह और उनके पुत्र चामुण्डराय ने अपनेको 'ब्रह्मक्षत्र' जाति का
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की कृति है । ये कर्णाटक के रहनेवाले थे । और उत्तराधिकारी राचमल्ल के दरबार में थे ।
बतलाया है, इसीलिये उनकी एक उपाधि 'ब्रह्मक्षत्र - शिखामणि' भी है ।
पता चलता है कि उनके गुरु प्रसिद्ध अजितसेन थे । लेकिन नेमिचन्द्र सिद्धान्त - चक्रवर्ती का भी उनपर काफी प्रभाव पड़ा था । नेमिचन्द्र ने अपनी रचना 'गोम्मटसार' मे चामुण्ड
की बड़ी प्रशंसा की है। इसके अतिरिक्त कन्नड कवि, चिदानन्द ने भी अपनी रचना 'मुनिवंशाभ्युदय' में नेमिचन्द्र को चामुण्डराय का गुरु बतलाया है ।
जिस युग में चामुण्डराय हुए थे, वह गंगवंश के राजाओं के लिए बड़ी मुसीबत का था । वे चारो ओर से दुश्मनों से घिरे हुए थे । अपना अस्तित्व कायम रखने के लिये और अपनी उन्नति के लिए उन्हे निरन्तर युद्ध करना पड़ा, और इसमे सन्देह नहीं कि इन युद्धों के संचालक चामुण्डराय ही थे ।