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________________ किरण ४] गोम्मटस्वामीकी सम्पत्तिका गिरवी रक्खा जाना २४३ कि इन पुजारियोंके पूर्वजोंने श्रवणबेलगोलके गोम्मटस्वामीकी सम्पत्तिको एक समय महाजनोंके पास गिरवी अर्थात् रहन (mortgage) रख दिया था ! लगभग तीन सौ वर्ष हुए जब शक सम्वत् १५५६ आषाढ़ सुदी १३ शनिवारके दिन मैसूरपट्टनाधीश महाराज चामराज वोडेयर अय्यके सदुद्योगसे ये सब रहन छूटे हैं। श्रवणबेलगोलमें इस विषयके दो लेख हैं, एक नं० १४० जो ताम्रपत्रों पर लिखा हुआ मठमें मौजूद है और दूसरा नं० ८४ जो एक मण्डपमें शिलापर उत्कीर्ण है। वे दोनों लेख कन्नड भाषामें हैं। पाठकोंके ज्ञानार्थ उनका भावार्थ नीचे प्रकाशित किया जाता है : लेख नं० १४० श्रीस्वस्ति । शालिवाहन शक १५५६, भाव संवत्सरमें, आषाढ़ सुदी १३ को, शनिवारके दिन, ब्रह्मयोगमें श्रीमन्महाराजाधिराज, राजपरमेश्वर, अरिरायमस्तकशूल, शरणागतवज्रपंजर, परनारीसहोदर, सत्त्यागपराक्रममुद्रामुद्रित, भुवनवल्लभ, सुवर्णकलशस्थापनाचार्य, धमचक्र श्वर, मैसूरपट्टनाधीश्वर चामराज वोडेयर अय्य पुजारियोंने, अपनी अनेक आपत्तियोंके कारण, बेल्गोलके गोम्मटनाथ स्वामीकी पूजाके लिये दिये हुए उपहारों (दान की हुई ग्रामादिक सम्पत्ति) को वणिग्गृहस्थोंके पास रहन (बंधक) कर दिया था, और रहनदार लोग (बंधकग्राही-mortgagees) उन्हें हस्तगत किये हुए बहुत कालसे उनका उपभोग करते आ रहे थे चामराज वोडेयर अय्यने, इस बातको मालूम करके, उन वणिग्गृहस्थोंको बुलाया जिनके पास रहन थे और जो सम्पत्तिका उपभोग कर रहे थे और कहा कि-"जो कर्जेजात (ऋण) तुमने पुजारियोंको दिये है उन्हे हम दे देवेंगे और ऋणमुक्तता कर देवेंगे।" ___ इस पर उन वणिग्गृहस्थोंने ये शब्द कहे-"हम उन ऋणोंका, जो कि हमने पुजारियोंको दिये है, अपने पिताओं और माताओंके कल्याणार्थ, जलधारा डालते हुए दान करेंगे।" उन सबके इस प्रकार कह चुकने पर, वणिग्गृहस्थोंके हाथोंसे, गोम्मटनाथ स्वामीके सम्मुख, देव और गुरुका साक्षीपूर्वक, यह कहते हुए कि-"जब तक सूर्य और चन्द्रमा स्थित हैं तुम देवकी पूजा करो और सुख से रहो-" यह धर्मशासन पुजारियोंको, ऋणमुक्तता के तौर पर, दिया गया। ___ बेल्गोलके पुजारियोंमे आगामी जो कोई उपहारोंको रहन रक्खेगा, या जो कोई उनपर रहन करना स्वीकार करेगा वह धर्मवाह्य किया जायगा और उसका ज़मीन तथा जायदादपर कुछ अधिकार नहीं होगा। यह भावार्थ मिस्टर वी० लेविस राइस साहब के अग्रेजी अनुवाद पर से लिखा गया है। कहीं-कहां चामराज के विशेपणादि सम्बन्ध में मूल से भी सहायता ली गई है।
SR No.010062
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain, Others
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1940
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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