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किरण ४]
श्रवणबेलगोल के शिलालेख
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दिगम्बर जैनगुरु-परम्परा का इतिहास उनके आधार से संकलित किया जा सकता है और मौर्यकाल मे जैनसंघ के दक्षिण को आने की वार्ता का वह पोषण करते हैं । यहाँ के लगभग शक सं० ५७२ के लेख नं० १७-१८ (३१) में कहा गया है कि 'जो जैनधर्म भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मुनीन्द्र के तेज से भारी समृद्धि को प्राप्त हुआ था उसके किश्चित क्षाण हो जाने पर शान्तिसेन मुनि ने उसे पुनरुत्थापित किया।' इसके अतिरिक्त और भी कई लेखों में ऐसा उल्लेख देखने को मिलता है। प्रो० हीरालाल जी ने इन लेखों का महत्त्व दरसाते हुए इनका संग्रह और सम्पादन " जैनशिलालेख संग्रह” के नाम से बम्बई की प्रसिद्ध श्रीमाणिकचन्द्र दि० जैन ग्रन्थमाला में कर दिया है। फिर भी इन लेखों को हिन्दी अनुवाद और विशेष ऐतिहासिक टिप्पणियों सहित प्रकाशित करना आवश्यक है । प्रो० साहब ने अपने संग्रह में जिन बातों पर प्रकाश डाला हैं उनको यहाँ पर दुहराना व्यर्थ है । यहाँ तो शिलालेखों के आधार से नवीन ज्ञातव्य प्रकट करना ही अभीष्ट है । पाठक उसी को पढ़ें।
अतः आगे
शिलालेख में सैद्धान्तिक उल्लेख
सब से पहले शिलालेखों में प्रयुक्त हुए जैनसिद्धान्त-विषयक वाक्यों को उपस्थित करके जैनसिद्धान्त के रूप-रंग को हम पुष्ट करेंगे, किन्तु उसके पहले पाठकगण देखें कि चन्द्रगिरि के शिलालेख नं० १ (लगभग शक सं० ५२२) ही ऐसा दि० जैन शिलालेख देखने में आया है। जिसमें भ० महावीर और उनके शासन का सम्पर्क विशाला (वैशाली) नगरी से दरसाया है । श्वेताम्बर-आगम-ग्रंथों मे भ० महावीर और वैशाली की घनिष्ठता का विशेष उल्लेख मिलता है । दिगम्बर जैन शास्त्र भी वैशाली को भ० महावीर की ननिहाल बताते है; परन्तु श्वेताम्बरीय शास्त्रकारों की तरह भ० महावीर का उल्लेख 'वैशालीय' नाम से करते हुए दिगम्बर - शास्त्रकार हमे नहीं मिलते हैं । उपर्युक्त शिलालेख मे अवश्य वैसी ही कुछ ध्वनि प्रकट होती है । यह इस शिलालेख की विशेषता है । देखिये सैद्धान्तिक उल्लेखों को
१ लेख नं० १ में भ० महावीर वर्द्धमान का उल्लेख करते हुए उनके केवलज्ञान का उल्लेख किया है और उसे लोकालोक-प्रकाशक तथा अर्हतपद का विशेषरण बताया है । आगे इसी लेख मे तप और समाधि की आराधना करने का उल्लेख है ।
२ लेख नं० ३ (शक संo ६२२) में पाप, अज्ञान और मिथ्यात्व को हनन करने और इन्द्रियों को दमन करने का उल्लेख है। इससे प्रकट होता है कि तब सम्यक्त्व के लिये उपर्युक्त तीन बातों का मिटना आवश्यक समझा जाता था और सम्यक् चारित्र में इन्द्रिय- दमन मुख्य था । ३ लेख नं० ७-८ (शक सं० ६२२) में 'संन्यासवत' द्वारा प्राणोत्सर्ग करने का उल्लेख है । 'तत्वार्थधिगम-सूत्र' मे भगवन् उमास्वाति ने व्रतों के अन्त में मुनि और श्रावकों