SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ૨૨૮ मारकर - प्राशा है कोठारी जो मेरे इस लेख को सद्भाव से ही अपनायेंगे और भविष्य में कुछ लिखते समय जल्दबाजी से काम न लेंगे। उनसे हमलोगों को बड़ी भाशाएँ है। किसी विशेष गुण का स्मरण नहीं किया। यदि हरिवंशपुराणकार अकलक देव का स्वतन्त्र स्मरण करते तो यह संभव प्रतीत नही होता कि आदिपुराणकार उनका उल्लेखमात्र करके ही छोड़ देने। इससे भी सिद्ध होता है कि हरिवंशपुराणकार ने जिनका उल्लेख भी नहीं किया था, आदिपुराणकार ने उनका कम से कम सामान्य उल्लेख तो कर ही दिया। __ ५ हरिवंशपुराण में 'देव' के त्मरण के बाद ही वज्रसूरि का स्मरण. किया गया है। देवसेन के उल्लेख के अनुसार वज्रनन्दी देवनन्दी के शिष्य थे। इस पौवापर्य से भी यह सिद्ध होता है कि वज्रसूरि के पहले जिन 'देव' का स्मरण किया गया है, वह वज्रसूरि के गुरु देवनन्दी ही है। अन्धकार ने दोनों के 'नन्दी' पद को छोड़ कर केवल 'देव' और 'वन' नाम से उनका स्मरण किया है। हरिवंश पुराण (मा० प्र० मा०) में 'देवसंघस्य' पाठ मुद्रित है। किन्तु उसी के नीचे टिप्पण में लिखा है कि 'देववन्यस्य' और 'देवनन्दस्य' पाठ भी उपलब्ध हैं। 'देवनन्दस्य' पाठ अशुद्ध है किन्तु उस पाठ से इतना संकेत अवश्य मिलता है कि इस श्लोक मे 'देव' पद से देवनन्दी का ग्रहण अभीष्ट था। अतः इसे क्लिष्ट कल्पना तो नहीं कहा जा सकता । 'देवसंघस्य' पद अपलदेव के यद्यपि अनुकूल पड़ता है, क्योकि उन्हे देवसंघ का आचार्य कहा जाता है। किन्तु एक तो इस विषय का कोई स्पष्ट उल्लेख मेरे देखने में नहीं आया, दूसरे श्रवणबेलगोल फशिलालेख नं० १०८ मे लिखा है कि अकलङ्कदेव के स्वर्गगत हो जाने पर यह संघ भेद हुआ था। नोमरे उक्त श्लोक में अकलङ्कदेव का स्मरण हुआ मानने मे पूर्वोक्त बाधाएँ उपस्थित होती है। अतः मेरा विचार है कि 'देवसंघस्य' के स्थान मे दूसरी प्रतियों में उपलब्ध बान्तास्य पाठ ही ठीक है। श्रीयुत प्रेमीजी ने भी अपने देवनन्दि-विषयक लेख मे यही पाठ रस्या है। पता नही, पण्डित जी प्रतियों में उपलब्ध इस पाठ को स्थान देने में केस 'फल्सनानगौरव' समझते हैं। कल्पना-गौरव तो तब कहा जा सकता था, जब यह पाठ किसी प्रनि में उपलब्ध नहीं होता और सद्गति ठीक बैठाने के लिये अपनी ओर से उसकी कल्पना की जानी। किन्तु गया तो नहीं किया गया है। तथा शिलालेखो के पूज्यपाद-विषयक उल्लेखा में भी यवनाम्य पाठ का समर्थन होता है। यथा-श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० १०८ में पयसाद को 'मुराधीश्वरपायपाद लिखा है। शिलालेख नं० १०५ मे 'यत्पूजितः पदयुगे धनदेवनाभि. निग्या है। शिलालेख नं०४० में लिखा है- 'देवताभिर्यत्पूजितं पादयुगं यदीयम्।' म विचन में नमी निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है कि हरिवंशपुराणकार ने प्रसिद्ध बयाफर देवनन्दी का ही स्मरण किया है, न कि व्याकरणशास्त्रनिष्णात अकलकदेव का। # इन लायक जिग्न में मुझे गोल्ड स्टूकर के 'पाणिनि' नामक ग्रन्थ से बहुत अधिक मशाला मिला है। अन. उनका श्रामार कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार किया जाता है।
SR No.010062
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain, Others
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1940
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy