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________________ किरण ४] पाणिनि, पतञ्जलि और पूज्यपाद नाम से स्मरण किया हैं । अतः कोठारीजी ने इस श्लोक के आधार पर जो समन्तभद्र को वैयाकरण सिद्ध किया है वह भी भ्रमपूर्ण हैं | .२२७ दोनों बातें निम्न प्रकार हैं १ यदि उक्त श्लोक में कलङ्क देव का ही स्मरण हुआ माना जाये तो कहना होगा कि हरिवंशपुराणकार ने पूज्यपाद का स्मरण ही नहीं किया । किन्तु यह बात किसी भी तरह नहीं जंचती कि हरिवंशपुराणकार अपनी रचना के प्रारम्भ में प्रमुख - प्रमुख शास्त्रकारों का स्मरण करते समय जैनेन्द्रव्याकरण के अध्येता अकलङ्क देव का तो वैयाकरण या व्याकरणशास्त्र - -निष्णात के रूप में स्मरण करें और आद्य जैनव्याकरण जैनेन्द्र के रचयिता प्रसिद्ध शाब्दिकं देवनन्दी को भूल ही जायें । २ अब तक शास्त्रों तथा शिलालेखों में पूज्यपाद और अकलङ्क के सम्बन्ध के जो उल्लेख मेरी दृष्टि से गुजरे हैं, उनमें पूज्यपाद का वैयाकरण के रूप में और अकलङ्क का तार्किक के रूप में ही स्मरण किया गया है। जैनसाहित्य में सर्वत्र एक ही ध्वनि गूंजती सुनाई पड़ती है; और वह है - " प्रमाणमकलङ्कस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् ।” वैयाकरण के रूप मे कलङ्क का जिसमे स्मरण किया गया हो ऐसा कोई उल्लेख कमसे कम मेरे देखने में तो नहीं आया । ३ हरिवंशपुराणकार जिनसेन और आदिपुराणकार जिनसेन, दोनों समकालीन थे, किन्तु हरिवंश पुराण की रचना पहले और आदिपुराण की रचना बाद को हुई है । हरिवंशपुराण की तरह आदिपुराण के भी प्रारम्भ में व्यतिक्रम से सिद्धसेन और समन्तभद्र का स्मरण कर (बीच में कुछ अन्य अचार्यों का स्मरण करने के बाद) देव नाम के विद्वान् का स्मरण इस प्रकार किया है - "कवीनां तीर्थकृद्देवः कितरां तत्र वर्ण्यते । विदुषां वाङ्मलध्वंसि तीर्थ यस्य वचोमयम् ॥” इसमें देव को 'कवियों का तीर्थङ्कर' बतलाया है और उनके वचोमय तीथ को विद्वानों के बाङ्मल का नाशक लिखा है । हरिवंशपुराण के पूर्वोक्त श्लोक को देखते हुए यह श्लोक भी अकलङ्क देव के पक्ष में सरलता से लगाया जा सकता है । क्योंकि व्याकरण-शास्त्र- निष्णात का वचोमय तीर्थ 'वाङ्मलध्वंसि' होना ही चाहिये । यदि आदिपुराणकार ने अकलङ्क का पृथक् स्मरण न किया होता तो पण्डितजी इसे भी अकलङ्क के पक्ष मे लगाये विना न छोड़ते । किन्तु उसके बाद ही अकलङ्क का नाम स्मरण करके ग्रन्थकार ने यह स्पष्ट कर दिया कि शब्दशास्त्र-निष्णात ‘देव' भट्टाकलङ्क से पृथक् विद्वान् हैं और वे देवनन्दी के सिवाय दूसरे नहीं हो सकते। ४ आदिपुराणकार ने “भट्टाकलङ्कश्रीपालपात्रकेसरिणां गुणाः” आदि लिख कर भट्टाकलङ्क का केवल सामान्य उल्लेखमात्र कर दिया है, 'देव' की तरह पृथक् रूप से उनके
SR No.010062
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain, Others
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1940
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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