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________________ २१८ भास्कर [भाग ६ किया था, जिस पर शब्दार्णवचन्द्रिका और जैनेन्द्रप्रक्रिया टीका बनाई गई है। यह बात शब्दार्णवचन्द्रिका के अन्तिम श्लोक के नोचे दिये चरणों से स्पष्ट है 'श्रीसोमदेवयतिनिर्मितमादधाति या नौः प्रतीतगुणनन्दितशब्दवाधौं ।' इसमें सोमदेव-निर्मित वृत्ति को गुणनन्दी आचार्य के 'शब्दार्णव' में प्रवेश करने के लिये नौका के समान बतलाया है। तथा जैनेन्द्रप्रक्रिया के अन्तिम श्लोक में "सैषा श्रीगुणनन्दितानितवपुः शब्दार्णवं निर्णयम्' लिखकर बतलाया है कि गुणनन्दी ने शब्दार्णव के शरीर को विस्तृत किया था। अत. गुणनन्दो पूज्यपाद का नामान्तर नहीं है, किन्तु उस नाम के वह एक पृथक् आचार्य है। पाणिनि, पतञ्जलि और पूज्यपाद कन्नड भाषा में चंद्रप्प कवि-निर्मित एक पूज्यपादचरित पाया जाता है। उसमें प्रसिद्ध चयाकरण पाणिनि को पूज्यपाद का मामा बतलाया है तथा लिखा है कि पाणिनि अपने अष्टाध्यायी अन्य को विना पूर्ण किये ही मर गये, और मरते समय अपने भानजे पूज्यपाद से अपना अन्य पूर्ण करने के लिये कह गये, जिसे उन्होंने बाद को पूर्ण कर दिया। कोठारी जो फा मन्तव्य है कि इस चरित में कवि ने जो कुछ लिखा है वह सब प्रमाण है या नहीं, यह तो नहीं कहा जा सकता, किन्तु उसका बहुभाग प्रमाण है और पाणिनि के ग्रन्थ अष्टाध्यायी की पूर्ति करने का उल्लेख तो प्रमाण है ही। इस प्रकार कन्नडभाषा के उक्त चरित में वर्णित घटनाक्रम को आधार मानकर फोठारी जी ने पाणिनि को पूज्यपाद का समकालीन अर्थात् ईसा की पांचवी शताब्दी का विद्वान् सिद्ध करने का प्रयास किया है। तथा जव पाणिनिव्याकरण के प्रणेता पूज्यपाद के समकालीन हैं, तब उस पर महाभाष्य की रचना करनेवाले पतञ्जलि महाराज तो उनक बाद के होने ही चाहिये। किन्तु कोठारी जी ने उन्हें भी पाणिनि का न केवल समकालान अपि तु उनका पूर्ववर्ती बतलाया है। क्योंकि वे लिखते है-"वयं तु भाष्यकार खिष्टान्दोयायां चतुर्वा पञ्चम्यां वा शतान्यां प्रादुरासेति मन्यामहे ।' अर्थात्-'हमारा मत है । भायफारस्वी सन् की चौथी अथवा पांचवीं शताब्दी में हुए है। इसके पहले पाणि नतिपय में उन्होंने लिखा है-"यद्यपि केपांचिद् विदुषां मतेन पाणिनिराचार्यः खिष्टकाला पर स्वतनुपमा भारतभृमिमलञ्चकार, तथाप्यस्मन्मतेन स खिष्टान्दीयपञ्चमशत प्रादुर्घभूव। अपांन्-'यद्यपि किन्हीं विद्वानों के मत से आचार्य पाणिनि ने ईस्वी सन् से पहले इस भाग्नभूमि को अपने जन्म से सुशोभित किया था। किन्तु हमारे मत से व सा की पांचवी शताब्दी में हुए हैं। इस स्खलित लेखनी के बारे में क्या लिखा जाये। अस्तु
SR No.010062
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain, Others
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1940
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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