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________________ ( १२८ ) (९३) जीव रूपी कावडिया शरीर-रूप- कावड़ में कर्म रूप भार लेकर ८४-०००० योनि में भ्रमण करता है । (९४) तीन लोक के पदार्थ भी ज्ञानी को नहीं डिगा सक्ते. (९५) अज्ञानी ज्ञानी से द्वेष करते हैं । (९६) उल्लू सूर्य से द्वेष करके अंधकार को पसंद करता है उसी प्रकार अज्ञानी मिथ्यात्व से खुश रहते हैं । (९७) कालरूप मणि घर के मुंह में तमाम विश्व का समावेश है । भारत में नित्य ४०,००० मनुष्य मरते हैं । (९८) इंद्रिय रूपी पिशाच आत्मा की घात करता 1 आत्म रमणता ही सच्चा सुख है । (९९) जैसे शराबी अपने शरीर को भूल जाता है वैसे अज्ञानता के नशे में आत्मा खुद को भूल गया है. आत्मा सो परमात्मा । (१००) सम्यक् प्रयत्न के अभाव में परमात्मा के स्थान पत्थर बनता है स्थावर जीव योनी में अनंत काल तक दुःख भोगता है आत्मज्ञान ही सब सुखों का मूल है । मैं कौन ? कहांसे आया ? कहां जा रहा हूं ? इस का भी जिसको ज्ञान नहीं है उससे ज्यादा अज्ञानी कौन ? 1
SR No.010061
Book TitleJain Shiksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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