SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 365
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १२६ ) (७५) रोगी रोग मिटने पर रोग की इच्छा नहीं करता उसी प्रकार समदृष्टि भोग की इच्छा नहीं करते. (७६) रोगी रोग से मुक्त होने की भावना करता है उसी प्रकार समदृष्टि भोग रुष रोग से मुक्त होने की भावना करते हैं। (७७) हे भव्य आत्मा ! आप में राग द्वेष न रहे ऐसी __ कृपा करें ! यही आत्मा का सच्चा धर्म हैं। (७८) मिथ्या दृष्टि भोग में इष्टानिष्ट बुद्धि रखते हैं पर समदृष्टि समभाव रखते हैं। (७९) मिथ्यात्वी मृत्यु समय डरता है पर समदृष्टि मृत्यु को महोत्सव मानता है और परम आनंदित रहता है। (८०) मिथ्यात्वी शरीर व कुटुम्ब को अपना मानते हैं पर समदृष्टिआत्मा ज्ञान दर्शन चारित्र और तपादि को अपना मानती है। (८१) स्व गुरुता व पर की लघुता यही मिथ्या दृष्टि का लक्षण है । पर समदृष्टि स्व लघुता व पर की गुरुता करने में ही आनन्द मानते हैं। (८२) समदृष्टि सब जीवों को कर्माधीन समझकर रागद्वेष न करते समभाव रखते हैं। *(८३) अरिहंत के जैसे गुण समदृष्टि में रहते हैं । ' (८४) अनंत संसारी के गुण मिथ्यात्वी में होते हैं।
SR No.010061
Book TitleJain Shiksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy