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( ९२ ) (१४) खुद को न पहिचानने वाला ज्ञानी या अज्ञानी ? जड या चैतन्य ?
(१५) हंस का भोजन बगूला नहीं पचा सकता उसी प्रकार ज्ञानी के ज्ञानमय वचन ज्ञानी ही समझते हैं।
(१६) शरीर ( अश्व ) पशु है. आत्मा सवार है। (१७) जैसी जिसकी बुद्धि वैसी उसकी सृष्टि, । (१८) निश्चयात्मक वृद्धि ही सत्य बुद्धि है. (१९) अज्ञानी, ज्ञानी और ज्ञान से दूर रहते हैं। (२०) आत्मोद्धार के लिये मौन ही उत्कृष्ट मार्ग है।
(२१) आत्मज्ञान होने से वृति निवृति में परिणीत हो जाती है. ( आत्म धर्म निवृत्ति है)
(२२) मारा हुआ विप मात्रा कहलाता है. सच्चाविप सर्प विप से भी भयंकर है उसी प्रकार विपेयच्छा विष है और उसका संयम अमृत ( संवर ) है।
(२३) आत्मज्ञानी संसार को माया समझकर आत्मा में लीन रहता हैं यह शाश्वत नियम हैं
(२४) अज्ञानी का मन कुत्तों जैसा दिन रात भोकता रहता है पर ज्ञानी का मन सिंह जैसा शांत व __ गंभीर रहता है।
(२५) श्वासोश्वास लेते छोड़ते समय स्वाभाविक __ " सोहें" की आवाज होती है फिर भी अज्ञानी विषय कषाय में फंसते है ! ( सोहँ अर्थात् मैं सिद्धस्वरूप हूँ) .
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