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________________ (७०) दिखाई देता है । शास्त्रकार केवल निःस्वार्थ भावसे आत्म हित के लिये उपदेश दे रहे हैं। उनके कथनमें जितना प्रेम और दया है उसका श्रोता उतनाही विरोधी नजर आता है। जिस रास्ते से जाने में ज्ञानी मना करते हैं तथा नुकसान बतलाते हैं उसी मार्ग पर, उन महापुरुषोके वचनों को ठोकर मार कर, हर्ष पूर्वक अज्ञानी दौडता है। ज्ञानी पुरुष फरमा रहे हैं कि आयु अल्प है और किये हुए कर्म सबको भोगना पडते हैं। लेकिन यह अपने को सिद्ध के समान अजर, अमर एवं शाश्वत मान कर अपने जीवन की पापमय प्रवृत्ति बढा रहा है। अगर मृत्यु का विश्वास हो तो कौन समझदार मनुष्य पाप में प्रवृत्त हो ? अगर स्वर्ग और नरक में विश्वास हो तो स्वर्ग का पथ त्याग कर नरक के पथ पर कौन चले ? किंतु विषयांध मानव को मृत्यु, स्वर्ग एवं नरक में विश्वास नहीं है । क्यों कि विश्वास होता तो वह पाप में प्रवृत्ति नहीं कर सकता। अज्ञान मनुष्य की जीवनचर्या प्रायः नास्तिक सी दिख पडती है । वह थोडेसे कोसों की मुसाफिरीके भी आवश्यक से अधिक सामग्री साथ ले जाता है तो फिर परलोक की महान् लंबी मुसाफिरी के लिये वह बेखवर कैसे बैठा हुआ है।
SR No.010061
Book TitleJain Shiksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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