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( ५ )
आत्मरूप मां पातुं हुं संतोष जो ॥ श्रात्मरूपमां तृप्त थवाथी आवतो । जीव सकल ने अखंड सुखनो कोष जो ॥१२॥ आत्मराम तो ज्ञान तणो सागर सदा | खरेखरोतो ज्ञायक वीर गणाय जो ॥ आत्मराम ज्ञायक ने ज्ञानी वली । ज्ञानी ज्ञायक विण अन्य नहिं होय जो ॥१३॥ आत्मराममां आव्याछे नहिं कोई पण । रस रूप के गंध, शब्द वा स्पर्श जो ॥ सूक्ष्म रूपे चेतन गुग धारी सदा । निराकारी नहिं को लक्षण पास जो ॥१४॥ दर्शन ज्ञाने महा हेतु ते जाणवो । क्रोधादिक भावोने नहिं ज्यां वास जो, क्रोध महितो क्रोध वसेछे सर्वदा । क्रोध रहे नहिं ज्ञान दर्शन पाम जो || १५ || सम्यक् ज्ञानी खरा रुपने जाणी ने | पुद्गल याने राग द्वेपना तत्वजो || ए पुद्गलनुं फल 'उदय' ने जाणवुं । मागणं क्रोधादिकना सत्वजो || १३ || कोषादिक भावनेने जाएं खरो । पण राजे नहीं एने आत्माराम जी || वात्मराम तो वायामां राचतो । जानी मायारू बन्ने अवसहम वो ॥१७॥