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काव्य विलास
ईश्वर निर्मल मुकुरवत्, तीन लोक आभास ।
सुख सत्ता चैतन्य मय, निश्चय ज्ञान विलास ॥ १६ ॥ जाके गुण तामें बसें, नहीं और में होय । सूधी दृष्टि विलोकतें, दोष न लागे कोय ॥१७॥ वीतराग वाली विमल, दोष रहित त्रिकाल ! ताहि लखै नहिं मूढ़ जन, झूठे गुरु के बाल ||१८|| गुरु अंधे शिष्य अंधकी, लखै न बोट कुबाट । बिना चक्षु भटकत फिरै, खुलै न हिये कपाट ॥ १६ ॥ जोलों मिथ्यादृष्टि है, तोलों कर्त्ता होय | सो हूभावित कर्मको, दर्वित करे न कोय || २०|| दर्व कर्म पुद्गलमयी, कर्त्ता पुद्गल तास । ज्ञान दृष्टि के होत ही, सूझे सब परकाश ॥२१॥ जोलों जीव न जानही, छहों काय के वीर । तौलों रक्षा कौन की, कर है साहस धीर ||२२|| जानत है सब जीव की, मानत आप समान । रक्षा यातें करत है, सबमें दरसन ज्ञान ||२३|| अपने अपने सहज के, कर्त्ता है सब दर्व । मूल धर्म को यह है, समझ लेहु जिय सर्व ||२४|| 'भैया' बात अपार है, कहँ कहां लों थोड़े ही में समझियो, ज्ञानवंत जो
कोय । होय ||२५||
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