________________
१२
श्रीआत्म-बोध
जैन संसारी होते हुए भी असंसारी सरीखा रह सकता है। गुस्से को आग को नम्रभाव हास्य के जल मे शान्त करता है। दूसरे के दोप भूल कर खुद के दोष ढूंढ़ता है । जैन की गरीवी मे सताप की छाया है। उसकी श्रीमंताई मे गरीबो के हिस्से हैं । मात्त्विकता की चांदनी मे जैन अहिर्निश स्नान करता है। चमकीली चीजें जैन मुफ्त में भी नहीं लेता । आत्म-सन्मान में मस्त रह कर मिथ्याभिमान को भस्म करता है।
जैन को देख कर दूसरो को वैसा बनने की इच्छा जागृत होती है।
श्री० वा० मो० शाह के वचनामृन १- स्वधर्मी-वत्सल-वत्स अर्थात् पुत्र सरीखा प्रेम धर्म । बन्धुओ से रखना और उनकी वैसी चिन्ता करना ।
२-श्रीमंत मूजी से दरिद्री श्रेष्ठ है ।
३-कंजूस जोड़ और गुणाकार सीखता है, बाकी और भागाकार नहीं सीखता है।
४-कंजूस ने साधु जी से याचना की, महाराज आप हमको रोज प्रतिज्ञा देते हैं, आप भी आज दान देने का उपदेशन देने का प्रतिज्ञा कीजिएगा।
५-महमद गजनो मत्यु के समय धन के ढेर पर सोकर बालक की तरह खूब रोया था, हाय, मेरे साथ इस में से कुछ । - नहीं चलता। (अन्याय नकरता तो रोना न पड़ता)