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दूसरा भाग
कष्टों को हास्य करे वह जैन । विजय मे खुश नहीं ।
पराजय में शोक नहीं ।
जैन यौवन को संयम से वशीभूत करता है ।
सत्ता मे सयानापन रखता है ।
धन का आदर्श व्यय करता है । ज्ञान के
चक्षु से जगत् को ज्ञानी वनाता है । खुद को कटा करके भी दया की ध्वजा फहराता है । दुश्मन को प्रेम से भेंटकर जैनत्त्व की दिव्यता और उदारता का दर्शन कराता है |
अपना बगीचा बनाता है ।
जगत् की उकरड़ी के बीच जैन हृदय से समझता है कि बन्ध और मोक्ष का सृष्टा
मैं ही हूँ ।
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स्वर्ग का कोई भी देव मेरी सहाय करने में समर्थ नहीं है । दृढ़ता और शान्ति ये दो के पवित्र शस्त्र हैं युद्ध विनय और शौर्य दो प्रचड भुजा
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जड़ता और निर्बलता उसकी कल्पना मे नहीं है । 'कुचित दृष्टि और वहम उसके राज्य में नहीं है लोक-कीर्ति के भूत को पैर से कुचलता है । दुनिया की वाह-वाह उसके लिये वकवाद है । सत्य और धर्म के लिये सर्वस्व को त्याग करता है ।
मृत्यु से भी महान् दुखों को हजम करना यह सीख रहा है। दुष्ट भावना वाले को भी यह अच्छा बनाता है ।
सब दुनिया 'ना' कहे और जैन वे धड़क 'हा' कहता है ।