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________________ श्रीआत्म-बोध दूसरो को जीतने वाला नहीं परन्तु अपने को जीतने वाला वह जैन । जैन का शत्रु जन्मा नही और अनन्त काल तक जन्मने का नही आज जैन परस्पर लड़ते हैं यह जैन रूप नहीं है। जैन को देव वनना सुलभ परन्तु देव को जैन बनना दुर्लभ । जैन प्रत्येक वस्तु के चार भाग करता है :बीज, वृन, पुष्प, फल । मनुष्य, हृदय, विचार, आचरण । बाह्य अवस्था को अन्तर अवस्था की छाया समझता है । जैन के लिए भला करते बुरा काम करना अपना नाम भूलने जैसा असम्भव है। पढ़े लिखे से जैसे अशुद्ध 'क', 'ख' लिखे जाने मुश्किल हैं। वैसे ही जैन के लिए खोटा कार्य अशक्य । चोर के लिए चोरी सरल । साहूकार के लिए महाकष्ट दायी। जंगली पत्थर की मूर्ति बने तो प्रकृति को पलटते क्या देर ? कषाय अंधकार है और वह उल्लू जैसे अधम को प्रिय है । कषाय की चिनगारी को ज्वालामुखी से भयकर समझे । जैनी कषाय को वश करता है। इतर जगत् उसके वश होता है। नारकी में जाने वाला ही धन को जमीन में गाड़ता है । जैन अपनी सम्पदा आकाश में उड़ा देता है। बड़े से बड़ा रोग कषाय को मानता है। स्व-प्रशंसा को निरी मूर्खता ससझता है।
SR No.010061
Book TitleJain Shiksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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